पृष्ठ:काश्मीर कुसुम.djvu/१९४

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[ २७ ] सुहल्ले में आगे भव सा हिन्दुओं का प्रबिस्य नहीं था पर यह मुहल्ला प्राचीन रूमय से वसा है। मैंने जो अनेक स्थलों पर लिखा है कि जैन मूर्ति बहुत मिलती हैं इससे यह निश्चय नहीं कि काशी में जैन के पूर्व हिन्दूधर्म नहीं था क्योंकि जैन काल के पूर्व को और सम काल को हिन्दुओं की अनेक मर्ति अद्यापि उ- पलब्ध होती हैं। कालिज में एक प्रस्थर खंड पड़ा है और उसकी लिपि परम प्राचीन है। पंडित शीतलाप्रसाद जी का अनुमान कि यह लिपि पाली के भी पूर्व की है। इस पत्थर पर एक काली के मन्दिर की प्रतिष्ठा का स. माचार है गौर इसका काल अनेक सहस वर्ष पूर्व है और उसमें ये श्लोक लिखे हैं। ख्याता बाराणसीय त्रिभुवनभवने भोगचौरीति दूरात् । सेवन्ते यां विरक्ताः जननमरणयो मोक्षमक्षकरक्ता ॥ यत्र देवोऽनिमुक्तः यो दृष्ट्या ब्रह्माहाऽपि च्युतकलिकलुपो जायते शुद्धभावः। अस्यामुत्तुङ्गशृङ्गस्फुटाशि किरिणा ॥ प्रतुलिविविधजनपदस्त्रीविलासाऽभिरामं विद्या वेदान्ततत्वव्रतजपनियमव्यग्रच- द्राभिजुष्टं ॥ श्रीमत्स्थान सुसेव्य ॥ तत्राऽभूत् सार्थनामा शिशुरपि विनयव्यापदो भद्र : त्यागी धीरः कृतज्ञः परिलघुविभवोप्यात्मवृत्याभिजीवी । वर्णा चंडनरोत्तमांगरचितव्याला बमालोत्कटा । सप्त्सर्पविवेष्टिताङ्गपरशुन्याविद्धंशुष्वामिषा लीला नृत्यरुचिर्पिलोत्प ॥ यस्यापि न तस्य तुष्टिरभवत् यावत् भवानीग्रहं शुशिलष्टा, ऽमलसन्धिवन्धघ- टितं घंटानिनादो ज्ज्वलं ॥ रम्य दृष्टिहरं शिलोच्याय ॥ ध्वज चामरं सुकृति नाश्रेयोऽर्थिना कारित इस लेख को उपसंहार काल में मणिकर्णिका घाट का. प्रवशिष्ट वर्णन