पृष्ठ:काश्मीर कुसुम.djvu/२२४

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तो यह देख कर हे हिन्दुस्तानियों वमा तुस को थोडी भी लज्जा नहीं पाती। पण्डित शेषगिरि शास्त्री ने लिखा है कि बलालसेन ने १२. ईसवी में ओजप्रवन्ध वनाया इस से बोध पाता है कि वे भोजराज के विद्योत्साही और उनके सन्मान यो हदि के हेतु कालिदास भवति इत्यादि कविय को कोवल अनुमान हीं से भोजराज का सभासद ठहराया है। भेज 'परित में इन सब कवियों के नाम मिलते हैं इस लिये भोज प्रवन्ध को कैसे प्रमाणिक अन्य कहै ? इसी भोजरान ने चम्यू रामायण सरस्वती कण्ठाभरण, अमर- टीका, राजवार्तिक पातंजलिटीका और चारुचार्य इत्यादि बहुत से ग्रन्थ वनाये हैं परन्तु कालिदास भवभूति आदि कवियों के नाम इन में से एक भी अन्य में नहीं लिखे है । विखगुणादर्शक ग्रन्यकार देदान्ताचार्य कालि- दास श्रीहर्ष और भवभूति एक समय भोजराज को सभा में वर्तमान ये जैसा लिखा भो है। साघश्वोरो मयूरो मुररिपुरे परो भारविः सारविद्यः । श्रीहर्ष:कालिदासः कविरथ भवभूत्यादयो भोजराजः ॥ इस में वे भी भोजप्रबन्ध प्रणेता वलाल के न्याय महाश्रम में पलित हुए है क्योंकि श्रीहर्ष कालिदास और भवभूति एक काल में वर्तमान नहीं थे इस विषय में बहुत से प्रमाण भी है। भारत वर्ष के बहुत से राजाओं का नाम विक्रमादित्य था, उज्जयिनी के अधोखर विक्रमादित्य जो ५७ खो. पू. में राज्य करते थे और जिन्हों ने 'संवत' स्थापन किया है तो हम लोगों को देखना चाहिये कि कालि. दास इस विक्रम के सभा में उपस्थित थे वा नहीं हरवोल्ट लिखते हैं कि कविवर होरेस और वर्जिनकालिदास के समकालि थे इम वात को बहुत से यूरोपीय पंडितों ने स्वीकार किया है कर्नेल टड ने अपने राजस्थान के इति- हाम्ग में लिखा है कि “जब तक हिन्दू साहित्य वर्तमान रहेगा तब तक लोग भोजप्रमर और उन के नवरत्नों को न भूलेंगे" परन्तु यह ठहराना वहुत कठिन है कि वह गुण पंडित तीन भोजराजों में से किस भोजराज की नवरत्न को सभा थी कर्नेल टड ने यह निरूपण किया है प्रथम भोजरा- ज संवत ६३१ में हितोय ७२१ और तृतीय भोजराज संवत ११.. में वर्त- मान घे “ सिंहासनबत्तीसी” “वेताल पच्चीसी" और विक्रमचरित, आदि अन्यों में महाराज विक्रमादित्य की बहुत सी अलौकिक कथा भरी हुई हैं