पृष्ठ:काश्मीर कुसुम.djvu/२२७

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विद्या की प्रशंसा सुनकर दूर २ मे पंडित पाते थे । पर शास्त्रार्थ के समय उस से सव हार जात छ । जव पंडितों ने देखा, कि यह लडकी किसी तरह वश में नहीं आती और सब को हरा देती है, तो मन में अत्यन्त लज्जित होकर सब ने एका किया, कि किसी टब विद्योत्तमा का विवाह किसी ऐसे मूर्ख के साथ करावें, जिस में वह जन्म भर अपने धम पर पछताती रहे। निदान वे लोग मुर्ख के खोज में निकले । जाते २ देखा, कि एक आदमी पेड़ के ऊपर जिस टहनी के ऊपर बैठा है, उमी को जड़ से काट रहा है। पंडितों ने उसे मग मुर्व समझकर बडी भाव भगत से नीचे बुज्ञाया, और ८हा, कि चन्नो हम तुम्हारा व्याह राजा की लडकी से करादेवें । पर खवर- दार राजा की सभा में मुंह से कुछ भी बात न कहो, जो वात करनी हो इशारों से कहियो। निदान नव वह राजा को सभा में पहुंचा, जिसने पंडित वहां बैठे थे, सब ने उठकर उस की पूजा की, जंचो जगह बैठने को दो और विद्योत्तमा से यों निवेदन किया कि ये वृहस्पति के समान विहान हमारे गुरु, बाप के व्याहने को आये हैं। परन्तु इन्हों ने तप के लिये मौन माधन किया है। जो कुछ आप को शास्त्रार्थ करना नगे, इशारों से कीजिए निदान उस राजकुसारी ने इस आशय से, कि ईएर एक है, एक उंगली उठाई । मुर्ख ने यह समझकर कि धमकाने के लिये उंगली दिखाकर एक आंग्न फोड़ टेने का इशारा करती है, भपनी दो उंगलियां दिखलाई। पंडि- तों ने उन दो उंगलियों के ऐमे अर्थ निकाले कि उम राजकुमारी की हार माननी पडो और बिवाह भी उमी दम हो गया। त के समय जब दोनों का एकान्त हुआ, किसी तरफ से एक जंट चिल्ला उठा । राजकन्या ने पूछा, कि यह क्या शोर है, मुर्ख तो कोई भी शब्द अशुद्ध नहीं बोल सक्ता था, कह उठा उद्र चिन्नाता है । और जव रामकुमारी ने दुहराकर पूछा, तो उद्र को जगह उस्ट्र, कहने लगा, पर शुद्ध उष्ट्र का उच्चारण न कर सका। तब तो विद्योत्तमा को पंडितों को दगाबाज़ी मालूम हुई, और अपने धोश खाने पर पछताकर फुट २ कर रोने लगी। वह मुर्ख भी अपने मन में बडा लज्जित हुपा, पहिले तो चाहा, कि जान ही दे डालूं पर फिर मोच समझ कर घर से निकाल विद्या उपार्जन में परिश्रम करने लगा। और थोडे ही दिनों में ऐसा पंडित हो गया, जिस का नाम आज तक चला जाता है । जव वह मूर्ख पंडित होकर घर में पाया, तो जैसा आनन्द निद्योत्तमा के मन को