पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/११४

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, ( ५६ ) खिलाते हैं जो किसानों के लिये प्रायः वेकार सी हैं । बदले में जमींदार भी किसानों की कमाई के गेहूँ, बासमती, घी, मलाई श्रादि खुद लेके उनके लिये मंडवा, खेसरी, मठा आदि ही छोड़ते हैं । मगर जहाँ तक जोतने का सवाल है किसान बैलों के साथ बड़ी निर्दयता से पेश आते हैं। नतीजा यह हुआ कि मेरी ये बातें कुछ काम न कर सकी और एक बैलगाड़ी तैयार की गई । अनाथ बाबू को भी साथ ही चलना था। जहानपुर और किशनगंज के बीच में ही कांग्रेस के पुराने सेवक श्री शराफत. अली मस्तान का गाँव कटहल बाड़ी चैनपुर पड़ता है। बीच में वहीं एक रात ठहरने और मीटिंग करने की बात तय पाई थी पहले से ही । मस्तान को भी यह बात मालूम थी। मगर ठीक दिन और वक्त का पता न था। हमें भी खुशी थो कि सन् १९२१ ई० से ही जिसने मुल्क की खिदमत में अपने को बर्बाद कर दिया और जमीन जायदाद वगैरह सब कुछ तहम नहस और नीलाम तिलाम होने दिया उस शख्स से मिलना होगा, सो भी खांटी किसान से । बर्बादी की पर्वा न करने के कारण ही तो उस शख्स का नाम सचमुच मस्तान पड़ा है। 'शराफत अली' तो शायद ही कोई जानता हो । सिर्फ मस्तान के ही नाम से वह पुराना देश सेवक प्रसिद्ध है। कांग्रेस का धान्दोलन शुरू होते ही उने धुन सवार हुई कि किसान किसी को लगान क्यों देंगे, और खुद मरेंगे लोगों को उसने यही कहना शुरू किया। खुद भी वही किया। फिर जमीन जायदाद बचती तो कैसे ? जमीन थी काफो । मगर सभी योही खत्म हो गई और वह बहादुर दर-दर का भिखारी बन गया । उसके परिवार को भूखों मरते रहने की नौबत आई ! फिर भी यह धुन परावर मुद्दत तक बनी रही। श्राज भी श्राग वही है, जो भीतरो-भीतर दवी पदी है। अगर किसान सिर्फ इतना हो समन्मले कि उन्हें भी खाने का हक है । वे भूखे मर नहीं सकते। और अगर इसी के अनुसार यदि ये अपनी कमाई को खाने पीने लग जाँच तो निना किसी को पर्वा किये ही, तो उनकी सारी तकली हवा में मिल जाय। पयों भूखों