पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/११५

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जो कुछ हो, हम सवेरे ही खा पी के बैलगाड़ी पर बैठे और मस्तान के गांव की ओर चल पड़े। रास्ते में चारों ओर सिर्फ मुसलमान किसानों के ही गांव पड़ते थे । हिन्दुओं की बस्ती तो हमें शायद ही मिली । ऐसी यात्रा मेरी जिन्दगी में पहली ही थी। सच बात तो यह है कि हजार जानने सुनने और समझने बूमने पर भी मेरे दिल में यह खयाल बना था कि हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमान जनता खामखाइ सख्त मिजाज झगड़ालू और घमंडी होती है। इसीलिये रास्ते में पड़ने वाले गांवों में बराबर इस बात की तलाश में था की ऐसी बातें मिलेंगी। उनके मकान वगैरह में भी कुछ खास बातें देखना चाहता था । इसीलिये जब मुसलमान मिलते ये तो उनकी अोर मैं निहायत गौर से देखता था। गांव के बाद गांव आते गये और एक के बाद दीगरे न जाने कितने व्यक्ति और कितने गिरोह रास्ते में मिले। हमने बारबार उनसे मस्तान के गांव की राह पूछी। उनने बताई भी। मगर हमें कोई खास बात उनमें मालूम न हुई । वही सादगी, वही सीधापन, वही मुलायम बातें और वही रहन सहन ! जरा भी फ़र्क नहीं ! दाढ़ी भी तो सबों को न था कि फर्क मालूम पड़ता । कपड़े भी वैसे ही थे। मकानों की बनावट में तो कोई अन्तर था ही नहीं । मुर्गे मुर्गियां नजर न आयें तो और कोई फर्क गावों में न था। यदि किसी और मुल्क का अादमी ये चीजें देखता तो वह यह सममी नहीं सकता कि ये हिन्दू हैं या सुसलिम ! ठीक ही है किसान तो किसान ही हैं । वह हिन्दू या मुसलिम क्यों बनने लगा। बीमारी, भूख, गरीबी, तबाही वगैरह भी तो न कलमा और नमाज ही पढ़ती है और न गायत्री संध्या ही जानती है और इन्हीं सबों के शिकार सभी किसान हैं-इन्हीं की छाप सभी किसानों पर लगी हुई है। फिर उन्हें चाहे श्राप हिन्दू कहें या मुसलिम ! है तो दर- असल वे भूखे, गरीब, मजलूम, तवाह, बर्बाद । यह देख के मेरे दिल पर इस यात्रा में जो अमिट छार पड़ी बह हमेशा ताजा वनी है । पांजीपाड़े के बाद यह दूसरा अनुभव फौरन ही हुया जिसने मेरी प्रांखें सदा के लिये खोल दी। इससे मेरी अांखों के