पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/१२७

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( ७२ ) खूब खान-पान भी चलता है । बहुत लोग जमा होते हैं । यह उत्सव प्रायः दशहरा (दुर्गापूजा) के समय ही या उसीके आस-पास होता है। बिहार के अन्यान्य जिलों में जो तौजी की प्रथा है वह तो ठीक दशहरे के दिन ही होती है । यह पुनाही उसी तौजी का कुछ विस्तृत रूप है । असल में संस्कृत के पुण्याह शब्द का अर्थ है पवित्र दिन । इसी का अपभ्रंश पुनाह हो गया । पुनाही उसी पुनाह या पुण्याह का सूचक है । इसके मानी हैं पुण्याह वाला । जमींदार अगले साल के लगान की वसूली उसी दिन से शुरू करता है जैसा कि और जगह तौजी के दिन शुरू करता है। हिन्दी साल भी तो दशहरे के बाद ही शुरू कार्तिक से ही प्रारंभ होता है । इसीलिये अगले साल के लगान की वसूली का श्रीगणेश उस दिन ठीक ही है। और जमींदार के लिये इससे पवित्र दिन और क्या होगा कि उसने लगान की वसूली साल शुरू होने के पहले ही जारी कर दी। किसानों के लिये यह दिन भले ही बुरा हो । मगर जमींदार के लिये तो सोना है। इससे वह उत्सव पुनाही का उत्सव कहा जाता है। उसके खर्च का एक इस्टिमेट या अन्दाज (Budget) तैयार होता है। वह हर साल की ही तरह होता है । हाँ, कुछ घट-बढ़ तो होती ही है। इसके बाद वह हर तहसीलदार के हिस्से में बाँट दिया जाता है कि कौन कितना वसूल करेगा किसानों से । अव तहसीलदार लोगों को मौका मिलता है कि इसी बहाने कुछ अपने लिये भी वसूल कर लें। इसलिये सर्किल से उनके जिम्मे जितना रुपया या घी वगैरह वसूलने को दिया गया था उसका ड्योढ़ा-दूना करके उसे अपने पटवारी आदि मातहतों के जिम्में बाँट देते हैं कि कौन कितना वसूल करेगा। फिर वे पटवारी वगैरह भी अपना हिस्सा उसी तरह ज्योढ़ा-दूना करके अपने अधीनस्य नोंकरों के हिस्से लगाते हैं जो कुछ बढ़ा-चढ़ा के हर किसान से वसूल करते हैं। इस तरह वसूली के समय असल खर्च कई गुना बन के वसूल होता है और गरीब किसान मारे जाते हैं । जो कुछ उन्हें घी-दूध आदि के रूप में या नगद देना पड़ता है वह ऐसा टैक्स है कि कुछ कहिये मत । उसके बदले /