पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/१२९

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1 ( ७४ ) गया। स्टेशन के पास की सभा का प्रबन्ध भी उन लोगों ने ही किया था। -मगर अब तो किसान-सभा से लोग भय खाते हैं। वर्ग विद्वेष की बात बहुत फैली है। ऐसी हालत में वैसे श्राश्रम यदि सतर्क हो जाय तो कोई ताज्जुन नहीं । असल में ज्यों ज्यों किसानहित और जमींदारहित के बीच वाली चौड़ी एवं गहरी खाई साफ साफ दीखने लगी है त्यों त्यों दुभाषिये -लोगों-दोनों तरफ की बातें मौके मौके से करने वाले लोगों के लिये इन बातों की गुंजाइश कम होती जाती है। अब तो गांधीवादी हमारे साथ बैठने से भी डरते हैं कि कहीं लीडर लोग जवाब न तलब करें । ऐसा हुआ भी है । चलो अच्छा ही हुआ। किसानों को सबसे ज्यादा धोखा उन्हीं लोगों से है जो ऊपर से उनके हितू होते हुए भी भीतर से वर्ग सामञ्जस्य के हामी हैं और चाहते हैं कि किसानों और जमींदारों में कोई समझौता हो जाय । नहीं तो अन्ततोगत्वा वे कहीं के न रह जायगे। क्योंकि आखिर अब तो किसानों के ही हाथों में अन्न देने के सिवाय वोट देने की भी शक्ति है। टीकापटी से हमें बनमनखी जाना था। यह रेलवे जंकशन मुरलीगंज और बिहारीगंज स्टेशनों से, जो पूर्णियाँ और भागलपुर जिलों की सीमा पर पड़ते हैं, आने वाली लाइनों का है। वहीं से पूर्णियाँ होती कटिहार को लाइन जाती है । हमें बड़हरा स्टेशन पर ट्रेन सवेरे ही पकड़नी थी। अगले "दिन रवाना होने की बात तय पाई थी। वह हरा वहाँ से दूर है। सड़क- वदक तो कोई है नहीं । सवारी भी सिवाय बैलगाड़ी के दूसरी संभव न थी। अगर दोपहर के बाद खाना हुआ जाय और रातोरात चलते जॉय “तो ठीक समय पर शायद पहुँच जाँय | किसनगंज से जहानपुर वाली यात्रा से यह कठिन थी । वहाँ केवल दिन में ही चलना पड़ा । मगर यहाँ तो रात में बराबर चलना था! मगर करना भी क्या था १ कोई उपाय न था आखिर किसान-अान्दोलन की बात जो ठहरी! यही हुया भी। हमारी बैलगाड़ी खाना हो गई। बदकिस्मती से जो बैलगाड़ी मिली वह छोटी सी थी। उस पर पर्दा भी न था कि धूप या । ।