" ठीक याद नहीं, किस साल की बात है। शायद सन् १९३६ ई. की गर्मी के दिन थे। मगर कोसी नदी के इलाके में तो उस समय बरसात शुरू होई जाती है। भागलपुर के मधेपुरा शहर में, जिसे कोसी ने न सिर्फ चारों ओर से घेर रखा है, बल्कि ऊजद सा बना दिया है, हमारी एक मीटिंग का प्रबन्ध किया गया था। भागलपुर जिले के उत्तरी भाग में सुपौल और मधेपुरा ये दो सब-डिविजन पड़ते हैं। सुपौल से दक्षिण मधेपुरा है । मगर कोसी का कोपभाजन होने से वद शहर तबाह, बर्बाद है। अब तो कोसी ने उसका पिंड छोड़ा है। इसलिये शायद पहले जैसा फिर वन जाय । हाँ, तो हमें उस दिन वहाँ किसानों की सभा करनी थी। उसके पहले दिन, जहाँ तक याद है, सुपौल ते बैलगाड़ी में बैठ के रवाना हुए थे। क्योंकि रास्ते में एक और मीटिंग करनी थी। उस स्थान का नाम शायद गमहरिया है । एक बाजार है । जी बनिये लोग भी काफी बहते हैं। वहीं भी काफी उत्साह था। मीटिंग भी अच्छी हुई थी। वहीं से हम मधेपुरा के लिये सवेरे ही खा-पी के रवाना हुए थे, ताकि तीसरे पहर मीटिंग में पहुन ोय । मगर बैलगाड़ी की सवारी यो। मालूम पड़ता था, राता खनही न होगा। जब तीन चार बजे तो हमारी घाट का ठिकाना न रहा। गाड़ी छोड़ के दौदना चाहते थे। पर, अाखिर दौड़ के जाते पह। अकेले तो रास्ता भी मानून न था। नदी-नालो का प्रदेश का यह दूसरी दिफत थी । रास्ते में मको, सरदर वगैरद की फसल सदी थी और राता उन्हीं खेतों से रोके था। कहीं उसी जंगल में भटक जाम तो वीर भी बुरा हो। हमारे साथ में वर्ग के प्रमुख कार्यकर्ता सोमलालाल यादव थे। पर हमारी दौर में साथ देने सरते । सारन जितेही अर्फपुर वालो सभा से लौटने पर हमारे साथ मिल पाले मिले देवर ।
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