पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/१४१

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- ( ८६ .) उसमें कुछ होता ही नहीं १ बात तो ठीक है। मगर सर्टिफिकेट में जमीन तो गछे नीलाम होती है। पहले तो और ही चीजें लुटती हैं | एक बात और । किसान को अाशा बनी रहती है कि शायद कोसी की धारा यहाँ से चली जाय तो फिर खेतों में खेती हो मकेगी। नत्र तो कुछ साल तक वे काफ़ी पैदावार भी रहेंगे ! इसीलिये उन्हें नीलाम होने देना वह नहीं चाहता ! आशा में ही साल पर साल गुजरता जाता है । वह निराश नहीं होता । असल में उसमें जितनी हिम्मत है उतनी शायद ही किसी ऋषि-मुनियों और पैग़म्बर श्रौलियों में भी पाई गई हो ! एक ही दो साल या एक दो बार ही घाटा होने पर व्यापारियों का दिवाला बोल जाता है। मगर लगातार पाँच, सात या दस साल तक फसल मारी जाती है, मजदूरी, बीज और दूसरे खर्च भी ज़ाया होते हैं। फिर भी सौसिम आने पर वह खेती किये जाता है। खूनी तो यह कि इतने पर भी, इस कदर लुर जाने पर भी, न तो सरकार को और न दूसरों को ही अपराधी ठहराता है ! केवल अपनी तकदीर और पूर्व जन्म की कमाई को ही कोस के सन्तोष कर लेता है। यह भी बताया गया कि जिनकी जमीनें और जगह हैं वे उन जमीनों से अन्न पैदा करके इन पानी वाली जमीनों का लगान चुकता करते हैं। ऐसे कई किसानों के नाम भी मुझे बताये गये । यह भी मैंने वहीं जाना कि यदि किसान उन जमीनों में भरे पानी में मछलो मार के अपनी जीविका किसी प्रकार चलाना चाहें तो जमींदार को उमके लिये जल-कर जुदा देना पड़ता है। क्या खूब ! इसे जले पर नमक डालना कहें या क्या ? पैदावार होती नहीं। फिर भी लगान होता जा रहा है। और अगर उसी जमीन वाले पानी में पैदा होने वाली मछली किसान मार लेता है या उसमें मखाना पैदा कर लेता है तो उसके लिये अलग जल-कर वसून किया जाय! यह अन्धेरखाता कब तक चलता रहेगा ? उन मजलूमों का कोई पुर्ण हाल श्राखिर कमी होगा या नहीं । जो लोग यह समझ बैठे हैं कि वे यो ही इन अन्नदाता किसानों का शिकार करते रहेंगे वे भूलते हैं। वह 1