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पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/१४५

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मेरा खून । पहनना, (-१०) खौलत था और डर भी लगता था कि अगर इनने अन्ततोगत्वा न जाने का ही फैसला कर लिया तो बात बुरी होगो । मेरा प्रोग्राम और 'पूरा न हो ! मैं यह बात सोचने को भी तैयार न था इसीलिये साथियों की इस नामदों पर भीतर ही भीतर कुढ़ता था और तर्स भी खाता था । सब के म किसान-सेवक ही थे । सो भी पुराने । मगर सेवा की ऐन परीक्षा में फेल हो रहे थे। रेल, मोटर या दूसरी सवारियों ते शान से पहुँच के फूल-मालायें नेता बनना, पुजवाना और गर्मागर्म लेक्चर माड़ना इसे किसान- सेवा नहीं कहते। यह तो दूकानदारी भी हो सकती है और सेवा भी। इससे तो किसानों को घोखा हो सकता है। दस-बीस मील पैदल चलके, कीचड़-पानी के साथ कुश्ती करके, जान की बाजी लगाके, दौड़-धूप के और भूखों रहके भी जब अपना प्रोग्राम पूरा किया जाय, किसानों का उत्साह बढ़ाया जाय, उनका संघर्ष चलाया जाय और उन्हें रास्ता दिखाया जाय तभी किसान-सेवा की बात उठ सकती है। यही है उस सेवा की अग्नि-परीक्षा । इसमें बार-बार उत्तीर्ण होने पर ही किसान-सेवक बनने का हक किसी को हो सकता है । दूर-दूर के गांवों से अपना काम-धाम छोड़ के किसान लोग तो भीगते-भागते और धूप में जलते या जाड़े में काँपते हुए मीटिंग में इस प्राशा श्राये कि अपने काम की बातें सुनेंगे, अन्धेरे में अपना रास्ता देखेंगे। मगर बाते सुनाने और रास्ता बताने वाले नेता ही गैरहाजिर ! उनने अपने दिल में पकी वजह बना ली कि 'तवारी न मिली, मौमिम ही बुरा था वगैरह वगैरह । मगर किसान को क्या मालूम ! उसे किसने कहा था कि मौसिम खराब होने पर सभा न होगी, या उसे ही (हर किम्मन को ही ) सवारी का प्रबन्ध करना होगा ! ये बातें तो जान-बून के उनसे कही जाती हैं नहीं। सिर्फ अन्न-पानी या पैसे उनसे इस काम के लिये माँगे जाते हैं और ये गरीब खुशी खुशी देते मी है। चाहे खुद भूखे रह जाय भले ही! ऐसी हालत में उन्हें निराशा करने या ऐन मौके पर मीटिंग में न पहुँचने का हक किस किसान नेता या किसान सेवक