(६२ ) क्या जानते गये कि हमसे बाबू भी खार खाते और डरते हैं ? वे जानते न थे कि हम जन-सेवा के नाम पर होने वाली दूकानदारी को मिटाने वाले हैं। यदि उन्हें मालूम होता कि हम जमींदारी-प्रथा को उसी धारे में डुबा के घड़ियालों के हवाले करने वाले हैं तो वे बिचारे कितने खुश होते ! क्योंकि सभी के सभी जमींदारों के द्वारा बुरी तरह सताये गये थे। इस प्रकार चक्कर काटते और घूमघुमाव करते-करते हम लोग वहाँ पहुँचे जहाँ नाव लगनी थी और पैदल चलना था। हमें खुशी हुई कि आ तो गये। मगर अभी कई मील पैदल खेतों से होके गुजरना था। उसी जगह नित्य कर्म, स्नानादि से फुर्सत पाके हम लोग 'क्विक् मार्च' चल पड़े। दौड़ते तो नहीं ही थे। हाँ, खूब तेज चलते थे। रात भर नाव में पड़े पड़े एक तरह की थकावट आ गई थी। उसे मिटाना और सवेरे टहलना ये दोनों ही काम हमें करने थे। इसीलिये कुछ तेज चलना जरूरी था। रास्ते में पता लगना मुश्किल था कि किधर जा रहे थे। चारों ओर मक्को ही मक्को खड़ी थी। उस इलाके में यह फसल खूब होती है और बरसात शुरू होते ही तैयार भी हो जाती है । जब और जगह देहातों में मक्को का भुट्टा देखने को भी नहीं मिलता तभी वहाँ उसकी फसल पक के तैयार हो जाती है। इस तरह नौ-दस बजे उस आश्रम पर पहुँचे जहाँ श्री नागेश्वर सेन ने सभा की तैयारी कर रखी थी । वहाँ देखा कि दूध-दही का टाल लगा था। बहुत लोगों के खाने-पीने की तैयारी थी । दूर-दूर से आने वाले किसानों को भी खिलाने-पिलाने का इन्तजाम था। इसीलिये इतना सामान मौजूद था । किसान गाय-भैंसे पालते ही हैं । एक वक्त का दूध दे दिया और काफी हो गया । गरीब और पीड़ित होने पर भी किसान कितना उदार है इसका अनुभव मुझे बहुत ज्यादा है । मगर जो कोई अनजान अादमी भी वहाँ जाता वह यह देख के हैरत में पड़ जाता । या तो धनियों की ही सभा को तैयारो सममता, या किसानों की उदारता पर ही मुग्ध होता।
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