पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/१५५

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( १०० ) था । सो भी मझियावाँ बहुत ही मजलूम है। राजा अमावाँ ने उसे भून डाला है । अभी अभी बकाश्त संघर्ष के बाद कुछ समलने लगा है। इसी गाँव ने पं० यदुनन्दन शर्मा को जन्म दिया है। उस समय लाखों रुपये लगान के बाकी थे ऐसा कहा जाता था। ऐसे गाँव में यदि न जाते तो सारा गुड़ गोबर ही हो जाता । वहाँ जल्दी कोई पहुँचता भी नहीं। वहाँ का रास्ता कुछ ऐसा है । इसलिये हम लोग हिम्मत करके चल पड़े। उछलते कूदते, गिरते पड़ते बढ़ते जाते थे। यात्रा बेशक बड़ी भयंकर थी। हमारी उस दिन आग्नि-परीक्षा थी। यदि फेल होते तो कहीं के न रहते । ममियावाँ ने सन् १६३६ ई० की बरसात के समय जो बहादुरी बकाश्त की लड़ाई में दिखाई और विशेषतः वहाँ की स्त्रियाँ जिस मुस्तैदी से लड़ के विजय पाने में समर्थ हुई उसका बीज हमने सन् १९३३ ई. की बरसात में ही उसो जाँच वाली यात्रा में बोया था । वही छे साल के बाद फल फूल के साथ तैयार हो गया । तब तो साफ ही है कि उस दिन चूकने से काम खराब हो जाता। इसलिये हँसी खुशी चल पड़े थे। तारीफ की बात यही थी कि हममें कोई भी हिचकने वाला न दीखा । सभी ने उत्साह के साथ आगे बढ़ना ही पसन्द किया। नहीं तो मजा किरकिरा हो जाता । ऐसे समय में दुविधे से काम बिगड़ता है। नतीजा यह हुआ कि हम दोपहर के पहले ही मझियावा ठाकुरबाड़ी पर जा पहुँचे। लोग तो निराश थे कि हम पहुँच न सकेंगे। मगर हमें देख किसानों में बिजली दौड़ गई । जो काम हमारे हजार लेक्चरों और उपदेशों से नहीं होता वही उस दिन की हमारी हिम्मत ने कर दिया । इसे ही कहते हैं मौन या अमली उपदेश । 'कह सुनाऊँ या कर दिखाऊँ में "कर दिखाऊँ" इसी का नाम है। ममियावाँ के किसानों की जो दरिद्रता हमने पहले पहल देखी वह कभी भूलने की नहीं । जमींदार कितने निर्दय और वज्र हृदय हो सकते हैं। यह चित्र हमारी आँखों के सामने पहले पहल खिंचा वहीं पर । हमने घर घर घूम के उनकी दशा देखी, उस पर खून के आंसू बहाये और जमींदारी को पेट भर के कोसा।