पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/१६३

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( १०८ ) है। इतनी परिश्रमी और खून को पानी बना के खेती करने वाली कि कुछ कहिये मत । जेठ की धूप की लपट और धू धू करती दुपहरी के समय मैदान में साग तरकारी के खेतों को ये दिन-रात सींचते रहते हैं। तब कहीं जमींदार का कड़े से कड़ा पावना चुका पाते हैं । धान या स्त्री की पैदावार से काम नहीं चलता । इसीलिये अपने आपको मुलस डालते हैं । फिर भी जमींदार ऐसा जल्लाद होता है कि हर घड़ी इनके खून का ही प्यासा रहता है। उसका पेट तो कभी भरता नहीं । वह तो कुम्भकर्ण ठहग । फिर पेट भरे तो कैसे ? उसे जितना ही ज्यादा मिलता है उसकी माँगें उतनी ही ज्यादा बढ़ती जाती हैं। इसीलिये स्त्री-पुरुषों, बाल-बच्चों और बूढ़ों तक के बदन को झुलसा के भी जमींदार की मांगों को पूरा करना किसानों के लिये गैर मुमकिन है। इसीसे अछुवा के गरीब कोइरी किसान भी जमींदारी जुल्म के शिकार हो चुके थे। असल में वहाँ के जमींदार सभी किसानों से, खासकर पिछड़ी जाति वालों से, दिन भर मुफ़्त काम करवाते रहते थे । बहुत तड़के उनके दरवाजे . पर किसानो का पहुँच जाना लाजिमी था। फिर रात होने पर घर जाते ये । और तो क्या मिलेगा, दिन में एक बार भोजन तक मुहाल था यदि खुद घर से खाने के लिये साग-सत्तु न लाते । यदि जमींदार ने भूखे और लावारिश कुत्तों के टुकड़ों की तरह कभी दो चार पैसे या पाव-याध सेर दे दिया तो ग़नीमत ! फिर भी हिम्मत न थी कि चूँ करें या दूसरी बार काम पर न पायें। चाहे हजार काम बिगड़े तो बिगड़े। मगर जमींदार के यहाँ वेगारी करने जाना ही होगा ! एक बार मजबूरन एक किसान नहीं जा सका। इसीके फलस्वरूप न सिर्फ वह, बल्कि सारा गाँव तबाह किया गया । इसीलिये अछुवा वाले थर्र मारते रहते थे। जमींदार के नाम पर उनकी रूह काँपती थी। जमींदार ने तरीका ऐसा निकाला था कि पारी पारी से हर किसान को उसके यहाँ पहुँचना ही पड़ता था। इसके लिये उसने एक बड़ा ही निराला ढंग निकाला था जिससे किसानों पर खौफ़ भी छा जाये और काम मी. .