पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/२१७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( १६० ) रहते हैं। गरीबों के नाम पर ऐसा आंसू बहाते हैं कि कुछ पूछिये मत । जैसा कि कह चुके हैं, साहित्य का काम है श्राम लोगों को जागृत करना, तैयार करना और उनकी मानसिक उन्नति करना, जिनते सच्चे नागरिक बन सकें। साहित्य का दूसरा काम है नहीं। थोड़े से लोगों का मनोरंजन करना या उन्हें काल्पनिक संसार में विचरण करने का मौका देना यह काम साहित्य का नहीं है । पुराने साहित्यकारों ने उसका लक्षण करते हुए साफ ही कहा है कि दिमाग पर ज्यादा दवाव न डाल कर और इसीलिये तुकुमार मस्तिष्क वालों के लिये भी बातें सुगम बनाने वाला ही ठीक साहित्य है। इसीलिये पढ़ते या सुनते जाइये और बिना दिक्कत मतलब समझते नाइये । नहाँ समझने में विशेष दिक्कत हुई कि वह दूषित साहित्य हो गया। बातें जो सरस बना के कही जाती है उसका मतलब यही है कि वे श्रासानी से हृदयंगम हो जायें। इस दृष्टि से तो जन-साधारण के लिये सुलभ और तैयार करने के दो ही राते हैं। या तो वह ऐसी भाषा में लिखा जाय जो बचपन से हम बोलते और सुनते हैं, जिसे मातायें और बहने बोलती त्रा रही है । या अगर यह न हो सके या इसमें बड़ी कठिनाई हो तो ऐसी खड़ी चरेली वाली भाषा तैयार की जाय जिसे सभी देहाती-हिन्दू-मुसलमान वेखटके समझ सके। "इस दृष्टि विन्दु को सम्मुख रखके यदि हम पर्यावक्षण करते हैं तो मर्मान्तक वेदना होती है", या "पहाड़ों की चोटियाँ गोशे सहाब से सरगोशियाँ कर रही हैं", को कौन सी ग्राम जनता ननमत्री है, समझ सकती है ? हिन्दी और उर्दू के नामी लिक्खाड़ चाहे खुद कुछ समझे। मगर उनकी बातें आम लोगों के लिये वैसी ही है जैसा बन में 'पका वेल बन्दरों के लिये । न तो उनकी हिन्दी समझ सकती है हिन्दू जनता और न उर्दू मुसलिम जनता । फिर हिन्दी को मुसलिम या उर्दू को हिन्दू जन समूह क्योंकर समझ पायेगा ! या तो सिर्फ "लिखें ईसा, पढ़ें मूसा' जैसी कुछ बात है । वे लोग खुद लिखते और खुद ही समझते है, या ज्यादे से ज्यादा उन्हों जैसे कुछ इने-गिने लोग। मगर वह लोग सुगम साहित्य