पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/२२१

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( १६४ ) झगड़े फौरन मिट जाये या कम से कम उनके मिटने का रास्ता तो जरूर ही साफ हो जाय। मगर इस हिन्दी शीर हिन्दस्थानी के झमेले में हमें बड़ा खतरा नजर श्रा रहा है। अभी तो यह सिर्फ सफेदपोश बाबुनों के ही बीच दोने के कारण उन्हीं की चीज है। मगर श्रन्देशा है कि वे लोग किसानों और मज़दूरों के भीतर इसे फैलायेंगे । शिक्षा का सम्बन्ध ज्यादातर इन्दी के हाथ में है। फलतः वे इसी साँचे में सचों को ढालना चाहेंगे ही। वैसी ही किताबें, वैदेही लेख, वैसे ही अखबार तैयार होंगे जनता को पढ़ाने के लिये । अधिक कोशिश इस बात की होगी कि यह जहर देहातों में और मजदूरों के इलाकों में फैले । जो जिस चीज को पसन्द करता है वह उसे ही सर्वप्रिय बनाना चाहता है। इसलिये इसका नतीजा सीधे धार्मिक कगड़ों के मुकाबिले में और भी बुरा होगा। क्योंकि यह जहर राजनीति की गोली के साथ लोगों के भीतर घुसेगा । अाज तो राजनीति हमारे जीवन का प्रधान अंग बन गई है। और अगर उसीके साथ यह झगड़ा हमारे किसानों तथा मजदूरों के भीतर घुसा, तो गज़ब हो जायगा । क्योंकि धार्मिक अन्धता को घुसाने का नया तरीका और नया रूप यही हो जायगा। फिर तो हम हमेशा कट मरेंगे। श्रतएव हमें अभी से इसके लिये सजग हो जाना होगा, ताकि इस साँचे में हमारी जनता का भावी जीवन ढलने न पाये। हमें ताज्जुब है कि यह बात ययों हो रही है। भाषा का विकाश तो नदी के विस्तार की तरह होता है । जैसे नदी खुद ही आगे बढ़ती जाती है। वह अपना रास्ता खुद बना लेती है। हम हजार चाहें, मगर वह हमारी मजा के मुताबिक कभी नहीं चलती । तभी उसका फैलाव काफी होता है। भापा की भी यही हालत होती है । याज अंग्रेजों के संसर्ग से हम अपनी भाषा में कितने ही शब्दों को घुसाते जा रहे हैं। प्रोग्राम, कमिटी, कान्स अादि शब्द हमने अपना लिये हैं। कांग्रेस और मिनिस्ट्री शब्द हमारी जबान पर हमेशा ही मौके व मौके पाये जाते हैं । देहाती लोग भी ।