पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/२२३

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( १६६ ) तोंद लाना उसके लिये बलगम का काम करेगा। हमारा दिमाग उसके बजाय ऐसे शब्दों के ढ़ने में और बनाने में लगना चाहिये जिन्हें सभी जाति और धर्म के जन-साधारगा ग्रासानी से समग सके। इस प्रकार जो साहित्य तैयार होगा नहो माग उसार करेगा, वही हमारे असली फाम का होगा। नहीं तो मध्यम वर्गीय मनोवृत्ति दमें जाने की उटा फकेगी। मगर इसी के गायन बाद रखना होगा कि भाषा का स्वाभाविक विकास छोपीर उसमें कृत्रिमता पाने न पाये । नदी के प्रवाह का दृष्टान्त देदी चुके है। जैसे शरीर में मांस वृद्धि होती है वैसे ही बाहरी शब्द भाषा में लटके रहें या बुरा है। अन्न-पानी को जैसे शरीर हजम करता है वैसे ही शब्दों को भाषा खुद हजम कर ले तभी ठोक होगा।