पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/२२६

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( १६६ ) जब मुझसे श्री विनोवा जी ने ये बातें पूछी तो मैंने ऐसा जवाब दिया कि वे अवाक् हो गये। मैंने सबूत में पक्का प्रमाण पेश करने को भी कह दिया कि इलजाम निराधार हैं । मैंने कहा, कि मैंने जिस हिसा का अाश्रय लिया है वह न सिर्फ कानून के भीतर है, प्रत्युत गांधी जी ने भी वैसी हिंसा का उपदेश घराबर किया है। फिर मैंने देसाई के श्राक्षेप का लिखित उत्तर भी उन्हें दिखाग। और भी बात होती रहीं। अन्त में उनने यही कहा कि इस बारे में क्या गांधी जी से आपकी बातें हुई हैं ? मैंने उत्तर दिया कि नहीं। तब उनने कहा कि बातें जरूर करें। मगर मैंने यही कहके टाल दिया कि मौका मिलेगा तो देखेंगा। मैंने वह भी कह दिया कि जो लोग यों ही एकतरफा बातों से निश्चय कर लेते हैं उनसे बातें करके होगा ही क्या ? फिर भी बातें करने पर उनने बहुत जोर दिया। मगर मुझे मौका ही कहाँ था? मुझे तो शाम को वर्धा के सोशलिस्ट चौक में एक अच्छी मीटिंग करके आगे बढ़ना था । लेकिन यहाँ पर मुझे गांधीवादी नेताओं की अहिंसा के दो सुन्दर नमूने पेश करने हैं। पन्त मिनिस्ट्री के समय इलाहाबाद में बड़ा सा दंगा हो गया था। बड़ी सनसनी थी। तूफान भी काफी मचा था। उस समय गांधी जी के सिद्धान्त के अनुसार कांग्रेस के प्रमुख लोगों का यह फर्ज था कि अपनी जान को जोखिम में डाल के भी दंगे को शान्त कर, ठीक उसी तरह जिस तरह सन् १६३१ ई० वाले कानपुर के दंगे में स्वर्गीय श्री गणेशशंकर विद्यार्थी ने किया था। ऐसे ही मौके गांधी जी और कांग्रेस की अहिसा की परीक्षा करते हैं। गांधी जी का जोर मी यही रहता है कि ऐसे समय कांग्रेसी नेता निडर होके हिन्दु-मुसलिम महल्लों में जायँ और उन्हें ठंडा करें। नियमानुसार इलाहावाद का दंगा उन नेताओं की बाट देख रहा था। खुशकिस्मती से वहीं पर स्वराज्य-भवन में बाल इंडिया

कांग्रेस कमिटी का आफिस भी था। श्रव भी है। उसके जेनरल सेक्रेटरी

आचार्य कृपलानी वहीं मौजूद थे, दूसरे बड़े लोग भी। मगर उनने क्या किया ? मेरे दो मुलिम साथी नो किसान-सभा