पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/२३२

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( १७५ ) बखतियारपुर में ही मुझे पता चला कि हरनौत की मिटिंग में कुछ गड़बड़ी होगी और विरोधी लोग ऊधम मचाएँगे । यही कारण था कि मैं पहले से ही तैयार होके गया था। गाँव के नजदीक पहुँचते ही देखा कि जहाँ एक दल लाल और तिरंगे झंडे के साथ बाजे-गाजे से हमारा स्वागत करने को तैयार है, तहाँ उसके बाद ही काले झंडे वाला दूसरा दल "स्वामी जी, लौट जाँय" श्रादि के साथ हमाग विरोध कर रहा है। हम हँसते थे। हमारी मोटर विरोधियों के बीच से आगे बढ़ गई । हम लोग सड़क से कुछ हट के एक बाग में गये जहाँ सभा की तैयारी थी। लोग तो पहले से थे ही। अब और भी जम गये। सभा-स्थान में कई चौकियाँ एक साथ मिलाके पड़ी थीं और उन पर दरी, कालीन वगैरह पड़े थे। हम लोग उन्हीं पर उत्तर रुख बैठे थे। स्पीचे हो रही थीं। और लोग बोल चुके थे। मगर मैं अभी बोल चुका था नही । अभी बोलने का सिलसिला जारी ही था। सभी का ध्यान उसी ओर था। इतने में एकाएक मुझे पता लगा कि मेरे दाएँ कंधे पर जैसे तेज जलन सी हो गई । मालूम पड़ा कि कोई जलता अंगार गिर गया । मेरा हाथ उस पर पहुँचा । तेज दर्द था। मगर लोगों ने देखा कि कोई श्रादमी अपनी लाठी मुझ पर चलाके वेतहाशा भाग जा रहा है। दौड़ो दौड़ो, पकड़ो पकड़ो की आवाज हुई । कुछ लोग दौड़ भी पड़े। मगर मैंने हठ करके सत्रों को लौटा लिया। मारने वाला निश्चिन्त निकल गया । असल में लाटी तो उसने मेरे माथे पर ही चलाई थी। मगर माथा बच गया बाल बाल और वह जा लगी कन्धे पर । उससे पहले मैंने लादी की चोट खाई न थी। इसीसे मालूम पड़ा कि जैसे जलता अंगार गिर गया। मैंने मारने वाले को पकड़ने से लोगों को इसलिये रोका कि उसमें खतरा था।अगर वह पंकड़ा जाता, जैसा कि निश्चय था, तो लोग क्रोध में उतावले होके जाने उससे कैसे पेश प्राते। भीड़ तो थी।अन्देशा था कि उसकी जान ही चली जाती। कम से कम इसका खतरा तो था ही।