पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/२४४

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( १८५) . इस तरह हम उनके नेता बनके अपने तुच्छ स्वार्थ के लिये उन्हें उनके. शत्रुओं के हाथ बराबर वेचते ही रहेंगे । उनके उद्धार का रास्ता यह हर्गिज है नहीं। मगर बदकिस्मती से इस बात के कडवे अनुभव मुझे किसान- श्रान्दोलन के सिलसिले में इतने ज्यादा हुए हैं कि गिनाना वेकार है। एक बात और है । जवाबदेही का मतलब भी हम ठीक समझ पाते नहीं । किसी काम के पूरा करने में क्या क्या करना होगा, कौन कौन दिकतें आयेंगी, उनका सामना कैसे किया जायगा, उस सम्बन्ध में किस पर विश्वास करें, किस पर न करें, विश्वास करें भी तो कहाँ तक करें, वगैरह वगैरह पहलुओं पर पूरा विचार करना भी जवाबदेही के भीतर ही श्राता है और यही उसके असली पहलू हैं । इन पर पूरा गौर किये बिना हम जवाब- देही को पूरा कर नहीं सकते और अगर हम इसमें चूकते हैं तो इसकी वजह या तो यही है कि हमने जवाबदेही को अभी तक जाना नहीं, या हमें इस बात का अनुभव नहीं कि कौन क्या कर सकता है, किसकी कौन सी दिक्कतें और अड़चनें हैं जिन्हें पहले समझ लेना जरूरी है। जब देहात के किसान या कार्यकर्ता किसी मीटिंग के प्रबन्ध की पूरी जवाबदेही ले लेते हैं तो हम निश्चिन्त हो जाते हैं कि अब हमें कुछ करना है नहीं । हम तो मजे से चलेंगे और मीटिंग करके लौट यायेंगे। मगर यह भारी भूल है। देहात के लोगों के लिये यह समझ लेना और सब बातों का पूरा पूरा हिसाब लगा लेना आसान नहीं है । तब बातों के तौलने की जवाबदेही उन पर डालना ही भूल है । उस तौल का उनका तराजू भी देहाती ही होता है जो पूरा नहीं पड़ता। इसीलिये हमें खुद सारी चीजों की देख-भाल करना जरूरी है। मैंने देखा है कि हर मीटिंग के करने कराने वाले श्रामतौर से यही समझते हैं कि दुनियों में बस यही एक मीटिंग है । इसीसे सब का काम चल जायगा। इसके बाद श्राज ही कहीं और भी मीटिंग हमारे लीवर को करना है या नहीं इसकी पर्वा उन्हें होती ही नहीं । कल, परसों भी उन्हें कहीं इसी तरह जाना है या नहीं, और अगर वे नहीं जा सके तो लोगों को पैसो ही निराशा होगी या नहीं, 2