( १८.)- . यहीं तक की बात तय पाई थी।" हम लोग उतर पड़े और पैदल चल पड़े। कुछ दूर चलने के बाद मालूम हुया कि इधर नदी-वदी कोई है नहीं। उसफा का रास्ता आगे से खेतों से होके जायगा, यह कच्ची सड़क छूट जायगी। हम लोग कुछ दूर और चल के धान के खेतों के बीच एक पीपल के नीचे जा ठहरे। वहीं इन्तजार करने लगे कि हाथी आये तो चलें । पेड़ की छाया में कुछ लेटे भी। मगर चैन नहीं। मीटिंग में पहुंचने की फिक्र जो थी। इसीलिये रह रह के हाथी का रास्ता देखते । कभी खड़े होते, कभी बैठ जाते । देखते देखते एक घंटा बीता, दो बीते । मगर हाथी लापता ही रहा । ताकते ताकते आँखें पथरा गई। हम परीशान हो गये। मगर फिर भी हाथी नदारद ! इधर दिन के दस-ग्यारह बज भी रहे थे। हमने सोचा कि कहीं ऐसा न हो कि हाथी की इन्तजार में बैठे बैठे उसफा की भी मीटिंग चौपट हो । हिलसा जाने का तो अब सवाल ही नहीं। हमारे सामने यह तीसरी दिक्कत आई। मगर हमने तय किया कि पैदल ही श्रागे बढ़ना होगा। रास्ता भी तो देखा था नहीं। फिर भी हिम्मत की कि पूछते-पाछते चले जायेंगे। हमने पहले से ही होशियारी की थी कि साथ में कोई सामान नहीं लिया था। नहीं तो वहीं बैठे रह जाते । उसफा जाना तो दूर रहा। फतुहा लौटना भी दूभर हो जाता । सामान कौन ले चलता ? उस घोर देहात में कुली कहाँ मिलता ? मुझे तो ऐसे मौके कई पड़े थे। इसीलिये तैयार होके श्राया था कि पैदल भी चलूँगा यदि जरूरत होगी । फिर सामान साथ लाता क्यों कर ? हाँ, तो हम चल पड़े। रास्ते की बात पूछिये मत । केवाल की काली मिट्टी सूखी थी। वह पाँवों को कतरे जाती थो । जूता पहनने में दिक्कत यह थी कि रह रह के कीचड़-पानी पार करना पड़ता था। इसलिये जूता महाराज हाथों की ही शोभा बढ़ा रहे थे । कभी कभी पाँवों में भी जा पहुंचते थे। रास्ता भी कोई बना बनाया था नहीं । कहीं खेल और कहीं दो खेतों की मेंड़ ( आर) से ही चलना पड़ता था। पूछने पर लोगों ने यही बताया कि फलां कोने में उसफा है। बस, वही दिशा देख के चल रहे
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