( १६३ ) पल्ला छूटे नहीं और भूखों मर के भी लगान, कर्ज वगैरह चुकाना ही पड़े वह उनका स्वराज्य कैसा ! और अगर यह बातें न हो तो फिर जमींदार मालदारों का स्वराज्य कैसा . इसीलिये कहता हूँ कि किसान और जमींदार मालदार का स्वराज्य एक हो नहीं सकता। इस पर जय-जयकार के साथ सभा विसज्जित हुई । सभी अपने-अपने गाँव घर गये । अब सवाल आया वापिस जाने और फतुहा में ठीक समय पर गाड़ी पकड़ने का । क्योंकि प्रायः शाम हो चली थी। हिलसा पहुँचने का तो प्रश्न ही न था। खतरा यह था कि फतुहा में भी विटा जाने वाली ट्रेन मिल सकेगी नहीं। यदि तेज सवारी मिलती तो मुमकिन या उसका मिलना । इसलिये मैंने इस बात पर जोर दिया कि अच्छी सवारी जल्द लाई जाय । मैंने सभा के पहले भी वहाँ पहुँचते हो कह दिया था कि सवारी का इन्तजाम ठीक रहे। पाने में जो हुआ सो तो हुआ ही, जाने का तो ठीक रहे। नहीं तो कल का प्रोग्राम भी चौपट होगा। दिलमा तो रही गया। लोगों ने हाँ हाँ कर दिया और सब ठीक है सुनाया। लेकिन मुझे तो शक था ही। क्योंकि "ब ठीक है" वाला जवाब जो फौरन मिल जाता है, बड़ा ही खतरनाक होता है। ऐसा मेरा अनुभव है सैकड़ों जगहों का। फिर भी करता ही श्राखिर क्या ? इसलिये मीटिंग खत्म होते ही सवारी की चिल्लाहट मैंने मचाई । जवाब मिला, पा रही है । कुछ देर बाद फिर पूछा, तो वही 'श्रा रही है' का उत्तर मिला । कई बार यही सुनते सुनते जब गया । पाने के समय की पत्ती होने के कारण ही सवारी के लिये परीशानी थी। नहीं तो पैदल ही चल पड़ता । मगर जब देखा कि कुछ होता जाता नहीं, तो अाखिर चल देना ही पड़ा पैदल ही। लोग रोकने लगे कि रुकिये, सवारी श्राती है। मगर मुझे अब यकीन न रहा । अतः रवाना हो गया। पीछे देखा कि वही पुराना हायी चीटी की चाल ने चला आ रहा है। मुझे रंज तो बहुत हुआ कि ये लोग धोखा देते हैं।मला इस मुर्दा सवारी से फतुहा कब पहुँचगा । ऐसी गैर जवाबदेही ! इससे पीछे से लोग पुकारते जाते थे कि मैं रु। मगर में पढ़ता ही चला जाता ।
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