पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/५३

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भी इसका सबूत है कि किसान-सभान्का अविच्छिन्न सम्बन्ध कार्य-कारण के रूप में कांग्रेस के साथ है, यह कांग्रेस संघर्ष का स्वाभाविक परिणाम है । अतएव अब उसका विराध करना केवल चट्टान से सर टकराना है। अब इसमें बहुत देर हो चुको है । और जब गत वष श्री पुरुषोत्तमदास जो टण्डन को अध्यक्षता में हिन्द-किसान-सभा ने यह स्पष्ट घोषित कर " दिया कि स्वातत्र्य संग्राम से सम्बन्ध रखने वाली राजनीतिक बातों में साधारणतः किसान-सभा का प्रत्येक सदस्य कांग्रेस से ही प्रेरणा और नेतृत्व प्राप्त करेगा, तो फिर हाय-तौबा मचाने की वजह क्या रही?

एक ही बात जो निहायत जरूरी है, रह जाती है। बड़े-बड़े नेता तक कह डालते हैं कि जभी कांग्रेस'-मत्र-मडल बनते हैं तभी बकाश्त के संघर्ष छेड़ कर ये किसान-सभावादी सिर्फ उन्हें परीशान करते हैं। ये संघर्ष इन मंत्रि-मंडलों के अभाव में नहीं होते। इससे इस सभा को बदनीयती सिद्ध होती है। इसीलिये इसे रहने देना कांग्रेस के रास्ते के रोड़े को कायम रखना है।

मगर यह बात गलत है। बिहार में ही ये बकाश्त संघर्ष ज्यादातर होते हैं और हुए हैं और वहाँ इनका श्रीगणेश मुंगेर जिले के बड़हिया टाल में १६३६ में ही हुआ था जब इन मंत्रियों का पता भी न था, जब असेम्बली के चुनाव हुए भा न हुए थे। चुनाव के बाद कांग्रेसी मंत्री न होकर जब दूसरे ही लोग मंत्री के रूप में कुछ महीने गद्दी पर थे, उस समय यह संघर्ष काफी तेज था। किसान-स्त्री-पुरुषों और सेवकों पर घुड़सवारों ने घोड़े दड़ाये थे उसी समय । यह एक ठोस ऐतिहासिक बात है, जिससे इन्कार किया जा नहीं सकता। इसी प्रकार १६४१ में और १६४२ के शुरू में डुपराव में जो चियाई का संघर्ष किसान-सभा के नेतृत्व में चला और जंगल सत्याग्रह चलता रहा, वह भी कांग्रेसी मंत्रियों के अभाव में ही था। फिर सरासर झूठी बात क्यों कही जाती है ?

यह ठीक है कि कांग्रेसी मंत्रियों के समय में ये संघर्ष अधिक होते हैं और यह उचित भी है। जब इन मंत्रियों को चुनकर किसान ही