पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(१७)

किसानों और जमींदारों के पारस्परिक सम्बन्ध अच्छे हो जायों दोनों के हृदय परिवर्तन से ही । मैं नहीं चाहता कि जमींदारी या ताल्लुके- दारी मिटा दी जाय।" ऐसी दशा में एक श्रोर तो किसान-सभा को कांग्रेस के नीचे और उसकी मददगार मात्र मानना और दूसरी ओर. सभा के जरिये ही जमींदारी मिटाने का दावा करना ये दोनों बातें पहेली सी हैं । इनका रहस्य समझना साधारण बुद्धि का काम: नहीं है ! कुछ ऐसा मालूम पड़ता है कि शुरू में ही किसान सभा की स्थापना के विरोध से लेकर आज तक जो नीति हमारे ये क्रांतिकारी दोस्त अपने लिये निश्चित करते आरहे हैं। उसमें मेल है--कोई विरोध नहीं है । और अगर जमींदारी मिटाने जैसी बात की चर्चा देख के विरोध मालूम भी पड़ता हो, तो वह सिर्फ ऊपरी या दिखावटी है । क्योंकि राजनीति तो पेचीदा चीज है और हमारे दोस्त लोग इस पेचीदगी में पूरे प्रवीण हैं ! यह तो एक कला है और बिना कलाबाजी के सबको खुश करना या सर्वत्र वाहवाही लूटना गैर- मुमकिन है।

मैं खुद आज तक की बातों का खयाल करता हूँ तो मेरे दिमाग में यह शंत अाती ही नहीं कि कैसे किसान-सभा कांग्रेस के नीचे और उसकी मददगार मात्र रही है। हमने तो कभी ऐसा सोचा तक नहीं। हमारे इन दोस्तों ने भी अाज तक किसी भी मौके पर यह बात नहीं कही है । मुझे तो हाल के उनके इस सर्म्युलर से ही पहले पहल पता चला कि वे ऐसा मानते रहे हैं । यह जान कर तो मैं हैरत में पड़ गया । आखिर कभी भी तो वे इस बात का जिक्र हमारी मीटिंगों में करते । इतनी महत्त्व- पूर्ण बात यों ही क्यों गुपचुप रखी गई यह कौन कहे १ कांग्रेस मिनिस्ट्री के जमाने में हमने बकाश्त संघर्ष सैकड़ों चलाये और दो हजार से कम किसानों या किसान सेवकों को इस तरह जेल जाना नहीं पड़ा। मिनिस्ट्री इसके चलते वेहद्द परीशान भी हुई । इसीलिये तो सन् १६३६ ई. के जून में बम्बई में ऐसी लड़ाइयाँ रोकी गई और न मानने वालों को कांग्रेस से निकालने की धमकी दी गई । फिर भी हमने न माना | जिसके पाल- लेकिन जब