पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/७७

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सन् १६३२ ई० के आखिरी और सन् १९३३ ई० के आरंभ के दिन थे। कांग्रेस का सत्याग्रह आन्दोलन धुआँधार चल रहा था। सरकार ने इस बार जम के पूरी तैयारी के साथ छापा मारा था । इसलिये दमन का दावानल धायँ-धायँ जल रहा था। सरकार ने कांग्रेस को कुचल डालने का कोई दकीका उठा रखा न था। लार्ड विलिंगटन भारत के वायसराय के पद पर आसीन थे। उनने पक्का हिसाब लगा के काम शुरू किया था । अपर से, बाहरी तौर पर, तो मालूम होता था सरकार ज्येष्ठ के मध्याह्न के सूर्य की तरह तप रही है इसीलिये प्रत्यक्ष देखने में आन्दोलन लापता सा हो रहा था । मीटिंगों का कोई नाम भी नहीं लेता था । यहाँ तक कि गुंगेर डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का चुनाव जब सन् १९३३ में होने लगा और सभी नेताओं के जेल में बन्द रहने के कारण उस जिले में मेरे दौरे की जरूरत पड़ी तो लोगों को भय था कि मीटिंगें होई न सकेंगी। बड़हिया में पहली और लवस्तीसराय में दूसरी मीटिंग की तैयारी थी। उस समय बड़हिया में अतिरिक्त पुलिस डेरा डाले पड़ी थी। जब मैं मीटिंग करने गया तो अफसरों के कान खड़े हो गये। वे सदल-बल मीटिंग में जा जमे । मेरे भाषण के अक्षर-अक्षर नोट किये जा रहे थे। जब मेरा बोलना खत्म हुश्रा और सब ने देखा कि यह तो केवल चुनाव की ही बातें बोल गया जो निर्दोष हैं तब कहीं जाकर उनमें ठंडक पाई । यही बात कम-वेश लखीसराय में भी पाई गई।

देश के और बिहार के भी सभी प्रमुख नेता और कार्यकर्ता जेलों में बन्द थे । बाहर का मैदान साफ था । सिर्फ मैं बाहर था। कही चुका हूँ कि सन् १६३० ई० में जेल में मैंने जो कुछ कांग्रेसी नेताओं के बारे में देखा था-ठेठ उनके बारे में जो फल और सेकंड डिविजन में रखे गये थे- उससे मेरा मन जल गया था और मैं कांग्रेसी राजनीति से विरागी बन