पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/८१

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मानें । ठीक दो बिल्लियों के झगड़े में बन्दर की पंचायत वाली बात थी। सन् १६२६ ई० में भी ऐसा ही हुआ था और दोनों की राय न मिलने के कारण ही सरकार बीच में कूदी थी। मगर जब किसानों के नाम पर किसान- सभा ने उसका जोरदार विरोध किया तो उसने यह कह के उसे वापस ले लिया कि जब किसान सभा भी इसकी · मुखालिफ़ है तो सरकार को क्या गर्ज है कि इस पर जोर दे ? इस तरह किसान-सभा ने जनमते ही दो काम किये । एक तो उस बिल को चौपट करवाके किसानों का गला बचाया। दूसरे सरकार को विवश किया कि न चाहते हुए भी किसान-सभा को किसानों की संस्था मान ले ।

इसी के मुताबिक सरकार और जमींदारों को भी फिक्र पड़ी कि यूनाइटेड पार्टी को मजबूत बनाने के लिये सबसे पहले उसकी ओर से काश्तकारी कानून का संशोधन कराके किसानों को कुछ नाम मात्र के हक दे दिये जाँय । साथ ही, जमींदारों का भी मतलब साधा जाय । मगर अब तक जो तरीका था उसके अनुसार तो जो बिल किसान और जमींदार दोनों की मन्दी से पेश न हो उसे सरकार मान नहीं सकती थी। इसीलिये जरूरत इस बात की हुई कि जिस यूनाइटेड पार्टी को बनाया जा रहा है उसमें किसानों के नाम पर बोलने वाले भी रखे जाय । नहीं तो सब गुड़ गोबर हो जायगा । युनाइटेड पार्टी का तो अर्थ ही यही था कि जिसमें सभी दल और फिर्के के लोग शामिल हों । उसके जिन खास-खास मेम्बरों की लिस्ट उस समय निकली थी उससे भी मालूम पड़ता था कि सभी धर्म, दल और स्वार्थ के लोग उसमें शरीक है । फलतः उसे ही बिहार प्रान्त के नाम में बोलने का हक है।

अब उसके सूत्रधारों को इस बात की फिक्र पड़ी कि किसानों के प्रति. निधि कौन-कौन से महाशय इसमें लाये जाँय । उनके सौभाग्य से श्री शिव. शंकर श्रावकील मिल ही तो गये । वे उसी प्रकार के किसान नेता है जिनका जिक्र पहले हो चुका है । यह ठीक है कि बाबू गुरुसहाय लाल भी उस पार्टी के साथ थे। मगर चालाकी यह सोची गई कि अगर खुजी तौर