पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/९०

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सन् १६३६ ई० की बरसात थी। दरभंगा जिले के मधुवनी इलाके. में ही सकरी स्टेशन से दो मील के फासलेपर सागरपुर मौजे में किसानों का संघर्ष जारी था। दरभंगा महाराज की ही जमींदारी है। सागरपुर के पास में ही पंडौल में उनका औफिस है। वहीं पर हजारों बीघे में टैक्टर की सहायता से उनकी खेती भी होती है। वहाँ चीनी की कई मिले हैं जिनमें महाराजा का भी बड़ा शेयर कुछेक में है । सकरी में ही एक मिल है। इसलिये हजारों-बीघे में ऊख की खेती करने से जमींदार को खूब ही लाभ होता है। दूसरी चीजों की भी खेती होती है । इसीलिये जमींदार की इच्छा होती है कि अच्छी-अच्छी जमीनें किसानों के हाथों से निकल जाँय तो ठीक । लगान दे सकना तो हमेशा मुमकिन नहीं होता । इसीलिये जमीन नीलाम होई जाती हैं । मगर पहले जमींदार लोग खुद खेती में चसके न थे। इसीलिये घुमा-फिरा के जमीनें फिर किसानों को ही दी जाती थी। हाँ, चालाकी यह की जानी थी कि जो लगान गल्ले के रूप में या नगद उनसे इन जमीनों की ली जाय उसकी साफ़-साफ़ रसीदें उन्हें न दी जाकर गोल-मोल ही दी जाय, ताकि मौके पर जमीनों पर किसान दावा करने पर भी सबूत पेश न कर सकें कि वही जोतते हैं । कारण, सबूत होने पर कानून के अनुसार उन पर उनका कायमी रैयती हक (ocoupancy right) हो जाता है । यही बात सागरपुर की जमीनों के बारे में भी थी। वहाँ की बकाश्त जमीनों को जोतते तो थे किसान ही। इसीलिये उनपर उनका दावा त्वाभाविक था। कोई मी आदमी जरा सी भी क्ष रखने पर बता सकता था कि बात यही थी भी। गांव के तीन तरफ करीत- करीव अोलती के पास तक की जमीनें नीलाम हुई ताई जाती थीं। किसानों के बाहर निकलने का भी गल्ता न था । यदि जमीनें उनतीन,