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४३

यात्रा में सम्मुख पड़ता है जहाँ शुक्र, उस-देश-समान,
दृष्टि बचाय नन्दिकश्वर की, बड़े बड़े कर यत्न-विधान।
सुरपुन्नाग-वृक्ष-शाखायें फैली थीं जिस पर सविशेष,
शङ्कर के समाधि-मण्डप में रतिनायक ने किया प्रवेश॥

४४

पावन देवदारु तरुवर की विशद वेदिका सुखदायी,
शारदूल के रुचिर चर्म से भली भांति जो थी छाई।
योग मग्न त्रिनयन को बैठे हुए वहीं उसके ऊपर,
शाघ्र शरीर छोड़नेवाले मनजिस ने देखा जाकर॥

४५

तन का भाग ऊपरी स्थिर था; वारासन में थे शङ्कर,
बैठे थे सीधे ही व, पर कन्धे थे विनम्र अतितर।
उलटे रक्खे देख पाणियुग, मन में ऐसा आता था,
खिला कमल उनकी गोदी में मानो शोभा पाता था॥

४६

लिपटा कर भुजङ्गवर ऊँचा जटा-कलाप बनाया था;
दोनों कानो में द्विगुणित कर अक्षमाल लटकाया था।
कृष्णासार-मृग चर्म उन्होंने, गाँठ बाँध, लिपटाया था,
कण्ठ कालिमा ने कालापन उसका बहुत बढ़ाया था॥

४७

जो थोड़े ही भासमान थे जिनकी अचल उग्र तारा,
पार, जिन्होंने भुला दिया था भृकुटी का विलास सारा।
पलक-जाल-जिनके निश्चल थे किरण अधोमुख पड़ते थे,
ऐसे नयनों से नासा की नोक महेश देखते थे॥

४८

वारिद-वृन्द बिना वर्षा के जैसे शोभा पाता है,
बिना [१]लोलकल्लोल-कला के जैसे सिन्धु दिखाता है।


  1. कल्लोल—लहर।