पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/३३

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(२४)

बिना वायुवाले मन्दिर में कम्पहीन दीपक जैसे,
अन्तर्गत-मारुत-निरोध से शम्भु हो रहे थे तैसे॥

४९

विमल ज्योति की छटा शीश से होकर उदित, निकलती थी;
निकल, तीसरे दृग के पथ से जो सब ओर फैलती थी
उससे, मृदुल मृणाल-तन्तु की माला से भी कोमलतर,
बालचन्द्रमा की शोभा को म्लान कर रहे थे शङ्कर॥

५०

त्रिगुण तीन द्वारों में मन का आवागमन रोक, ईशान,
वश में कर उसको समाधि से दे हृदयारविन्द में स्थान
जिसको अविनाशी कहते हैं बड़े बड़े विज्ञान-निधान
उस आत्मा को वह अपने में देख रहे थे करके ध्यान॥

५१

मन से भी जिनकी न घर्षणा हो सकती है किसी प्रकार,
ऐसे दुराघर्ष त्रिनयन को देख समीप भाग से मार।
वह, यह सका न जान, तनिक भी, शिथिलित कर होकर, डर
शर भी, और शरासन भी कब छूट पड़े उसके कर से॥

५२

तदुपरान्त, निज सुन्दरता से, मन्मध का प्रायः निःशेष,
हुआ वीर्य पुनरुज्जोवित सा फिर से करती हुई विशेष।
साथ लिये वन की दो देवी, धरती हुई शम्भु का ध्यान,
हुई नयनगोचर गिरिकन्या गिरिजा गुण-गौरव की खान॥

५३

जिसके नव अशोक फूलों ने पद्मराग-छवि छीन लिया,
जिसके कर्णिकार कुसुमों ने स्वणवर्ण दुर्वर्ण किया।
जिनके निर्गुण्डो के गुच्छ हुए मोतियों की माला:—
वही वसन्त-पुष्प के गहने पहने थी वह गिरिबाला॥