पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

(२६)

५९

जिनके आसन के नीचे के भूमिभाग को सर्पाधीश,
फण-सहस्त्र पर बड़े यत्न से रक्खे रहा लगाये शीश।
वे महेश निज प्राणवायु को धीरे धीरे युक्ति समेत,
छोड़, निबिड़ वीरासन अपना शिथिलित करके हुए सचेत॥

६०

"महाराज! गिरिवर की कन्या सेवा करने है आई"—
शीश नाय नन्दी ने उनसे कही बात यह सुखदायी।
स्वामी के भ्रभंग-मात्र से जब उसने निदेश पाया;
गिरिजा को सत्कार सहित वह उनके सम्मुख ले आया॥

६१

तोड़े हुए हाथ से अपने, महा मनोहरता के मूल,
पत्तों के टुकड़ेयुत नूतन शिशिरान्तक वसन्त के फूल।
गिरिजा की दोनों सखियों ने, विधिवत् करते हुए प्रणाम,
शिव के पैरों पर बिधराये जोड़ पाणिपङ्कज छविधाम॥

६२

नील अलक में शोभित नूतन कणिकार-कलिका सुन्दर,
देह झुकाते समय गिराती हुई महीतल के ऊपर।
कानों के पल्लव टपकाती, मस्तक निज नीचे रख कर,
किया उमा ने भी, तदनन्तर, शङ्कर को प्रणाम सादर॥

६३

"पावे तू ऐसा पति जिसने देखी नहीं अन्य नारी"—
यह सच्ची आशीष ईश ने दी उसको सब सखकारी।
महामहिमपुरुषों के मुख से वचन निकल ना जाता है;
विश्व बीच विपरीत भाव वह कभी नहीं दरसाता है॥

६४

जलती हुई आग में गिरने के इच्छुक पतङ्ग सम मार,
बाण छोड़ने का शुभ अवसर आया है, यह कर कुविचार॥