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(२७)

गिरिजा के समक्ष शङ्कर को लक्षीकृत कर भले प्रकार,
अपने धन्वा की प्रत्यञ्चा तानी उसने बारंबार॥

६५

मन्दाकिनी नदी ने जिसको निज जल में उपजाया है;
दिनकर ने अपनी किरणों से जिसे विशेष सुखाया है।
वह सरोज-बीजों की माला, अरुण-वर्ण कर में लेकर,
गिरिश तपस्वी को गौरी ने अर्पण की सुन्दर सुन्दर॥

६६

प्रिय होगा प्रेमिणी उमा को इसके लेने का व्यापार,
यह विचार कर उस माला को शिव ने इधर किया स्वीकार।
संमोहन-नामक अमोघ शर निज निपङ्ग से उधर निकाल,
कुसुमशरासन पर, कौशल से, मन्मय ने रक्खा तत्काल॥

६७

राकापति को उदित देख कर क्षुब्ध हुए सलिलेश समान,
कुछ कुछ धैर्य्यहीन होकर के, संयमशील शम्भु भगवान।
लगे देखने निज नयनों से, सादर, साभिलाष, सस्नेह,
गिरिजा का बिम्बाधर-धारी मुखमण्डल शोभा का गेह॥

६८

खिले हुए कोमल कदम्ब के फूल तुल्य अङ्गों द्वारा,
करती हुई प्रकाश उमा भी अपना मनोभाव सारा।
लज्जित नयनों से, म्रमिष्ट सी, वहीं, देखती हुई मही,
अति सुकुमार चारुतर आनन तिरछा करके खड़ी रही॥

६९

महा जितेन्द्रिय थे; इस कारण, महादेव ने, तदनन्तर,
अपने इस इन्द्रियक्षोभ का बलपूर्वक विनिवारण कर।
मनोविकार हुआ क्यों? इसका हेतु जानने को सत्वर,
चारों ओर सघन कानन में प्रेरित किये विलोचन वर