पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/३९

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तब धरती पर लोट, कुचों पर धूल लगाये,
देहदशा को भूल, अखिल अलके बिखराये।
सारे वन को दुखित बनाती हुई दुखारी,
करने लगी विलाप पञ्चशायक की प्यारी।।

जो यह तेरा गात मनोहरता की राशी,
उनका था उपमान सदा जो सुघर विलासी।
उसकी ऐसी दशा हुई! फटती नहिं छाती!!
हाय हाय अति-कठिन निंद्य नारी की जाती!!!

नव नलिनी को नीर छोड़ जाता है जैसे,
कहाँ गया हे नाथ! छोड़ मुझको तू तैसे?
किया नहीं प्रतिकूल कभी कुछ मैंने तेरा,
फिर क्यों देता नहीं दरस रोदन सुन मेरा?

हुआ स्मरण क्या तुझे करधनी से निज-बन्धन?
अथवा प्रणय-विशिष्ट कमल-कलिका से ताड़न
"हदय बीच तव वास"--कथन यह कपट तुम्हाला
क्योंकि, अतनु तुम हुए; तदपि तनु बना हमारा

अन्य लोक तुम गये नयेही हे प्रिय मेरे!
निश्चय ही मैं नाथ! निकट आऊँगी तेरे।
वञ्चित हुआ, परन्तु जगत यह विधि के द्वारा
तेरे ही आधीन सौख्य इसका था सारा॥

निबिड़ निशा में, नित्य, नगर-गलियों के भीतर,
धन-नार्जन-भयभीत सुलोचनियों को सत्वर।