३
तब धरती पर लोट, कुचों पर धूल लगाये,
देहदशा को भूल, अखिल अलके बिखराये।
सारे वन को दुखित बनाती हुई दुखारी,
करने लगी विलाप पञ्चशायक की प्यारी।।
४
जो यह तेरा गात मनोहरता की राशी,
उनका था उपमान सदा जो सुघर विलासी।
उसकी ऐसी दशा हुई! फटती नहिं छाती!!
हाय हाय अति-कठिन निंद्य नारी की जाती!!!
५
नव नलिनी को नीर छोड़ जाता है जैसे,
कहाँ गया हे नाथ! छोड़ मुझको तू तैसे?
किया नहीं प्रतिकूल कभी कुछ मैंने तेरा,
फिर क्यों देता नहीं दरस रोदन सुन मेरा?
६
हुआ स्मरण क्या तुझे करधनी से निज-बन्धन?
अथवा प्रणय-विशिष्ट कमल-कलिका से ताड़न
"हदय बीच तव वास"--कथन यह कपट तुम्हाला
क्योंकि, अतनु तुम हुए; तदपि तनु बना हमारा
७
अन्य लोक तुम गये नयेही हे प्रिय मेरे!
निश्चय ही मैं नाथ! निकट आऊँगी तेरे।
वञ्चित हुआ, परन्तु जगत यह विधि के द्वारा
तेरे ही आधीन सौख्य इसका था सारा॥
८
निबिड़ निशा में, नित्य, नगर-गलियों के भीतर,
धन-नार्जन-भयभीत सुलोचनियों को सत्वर।
पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/३९
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ३० )