पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/४०

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मिज निज प्रिय के गेह,स्नेह वर्द्धित कर प्यारे ।
पहुँचावेगा हाय ! कौन अब दिन तुम्हारे

कामिनियों के लिए मधुर मदिरा मुददायी : ........
विडम्बना है,बिना तुम्हें.अबलामी बनाई,
नाम-शेष सृन तुम्हें शशी अति पछतावेगा ।
शुक्ल पक्ष में भी न वृद्धि सुख से पावेगा ।
१०
लाल तथा कुछ हरे चारुतर-बन्धन-धारी,
कोकिल कल-विज्ञान, लोक-लोचन सुखकारी !
ऐसे नवल रस्माल-फूल के अद्भुत शायक
ग्रहण करंगा कान ? कहो प्रिय है मम नायक !
११
मधुकर पंक्ति मनोज ! जिसे तूने अपनाया;
प्रत्यञ्चा बहु बार धनुष की जिसे बनाया ।
वनस्थली का आज करुण-नव से भरती है;
मुझको दुखित देख, रुदन ला वह करती है।।
१२
धारण कर तनु रुचिर, उठो; मुख मुझे दिखावा ;
रति-योजक उपदेश पिक को नाथ ! सुनायो ।
ख-प्रणाम स-विकम्प, सुरत-याचन वह तेरा,
सोच सोच कर, धैय्य नाश होता है मेरा ।।
१३
है रति-कला-प्रवीण ! कुसुम वासन्तिक लेकर,
तुमने किये मदर्थ स्वयं जो ग्राभूषण-वर।
अङ्ग अङ्क में उन्हें किये है अब तक धारण:
किन्तु देखती नहीं देह तव उनका कारण !