पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/४१

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१४
यावक-रस मम वाम पाद में, नाथ लगावो;
असम्पूर्ण ही छोड़ गये तुम उसको; आवो।
अथवा सुर-सुन्दरी तुम्हें जब तक न लुभावें,
तब तक सुरपुर हमी, अनल में जल कर, आवे
१५
"रति मनसिज के बिना रही पल भर भी जीवित--"
है मम जीवित-नाथ! कहेंगे यही सभी नित।
यद्यपि तनु तज, अभी तुम्हें फिर अङ्क भरूँगी;
इस कलङ्क को दूर तदपि किस भाँति करूँगी
१६
शोक! शोक!! हा शोक!!! अहो परलोक-निवासी
अन्त्य कृत्य तक नहीं कर सके है यह दासी।
अवितर्कित गति हुई हाय! तेरी हे स्वामी!
जीवन भी तव गया, गया वह तनु भी नामी!
१७
गोदी में रख चाप, अहह हे हृदय-विहारी!
सीधा करते हुए विशिख त्रिभुवन-वशकारी।
तुमने ऋतुपति सङ्ग किये जो कथन रसीले,
सब आते हैं स्मरण, नहीं हैं मुझ को भूले।।
१८
तष हदयङ्गम सखा सुमन-धन्धा का दाता
कहाँ गया ऋतुराज? नहीं वह मुझे दिखाता।
क्या उसको भी कुपित शम्भु ने दोषी पाया?
जो गति तेरी हुई उसी गति को पहुँचाया?
१९
ये विलाप के वचन लगे ऋतुपति को ऐसे,
लगते हैं विष-बाण हृदय के भीतर जैसे