पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/४६

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मन का दृढ़ सङ्कल्प, और जल जो नीचे को गिरता है,
कोटि यत्न करने पर भी वह किसका फेरा फिरता है?

मनोऽभिलषित जाननेवाले गिरिवर से निज अभिलाषा,
एक बार, आली के मुख से, शैलसुताने यों भाखा।
"फल मिलने तक, वन में मुझको तप-निमित्त रहने दीजे:
यही आप से मैं चहती हूँ, प्यारे पिता कृपा कीजे"।।

यह अपने अनुरूप प्रार्थना लगी पिता को अति प्यारी;
दिया निदेश उसी क्षण उसने, मन में मान माद मारी।
जिस मयूर-मण्डित गिरि ऊपर गौरी तप के लिए गई,
उसको गारी-शिखर नाम की पावन पदवी मिली नई।।

अपनी लोल लरों से चन्दन-लेप मिटानेवाली माल
हद-निश्चयधारिणी उमा ने तृण समान तज कर तत्काल।
उश्च कुचों की कठिनाई से फटा हुआ वल्कल अभिराम
बाल-सूर्य-सम पीत-वर्ण का बाँधा निशि दिन आठों याम।

कुञ्चित-कच-कलाप-युत्त उसके मुख पर थी जो मधुराई,
जटा-जूट रखने पर भी वह रही पूर्ववत ही छाई।
मधुपावली-सङ्ग जो शोभा पङ्कज कलिका पाती है,
सघन-सिवार-सङ्ग में भी वह वैसी ही दिखलाती है।।
१०
क्षण क्षण में रोमाञ्च-कारिखी मूँज-मेखला तिहराई,
बत-पालन के लिए उमा ने लिज कटि को जो पहनाई।
पहले पहल पहनने से वह हुई बहुत ही दुखदाई,
उसके अति-सुकुमार जपन पर करदी उसने अरुणाई।।