पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/४७

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११
अधरों के रँगने में अपना अतिशय कोमल कर न लगाय,
कुच-गत-अड़्गराग से आहणित कन्दुक से भी उसे हटाय।
कुश के अङ्कर तोड़ ताड़कर धाव उँगालयों में उपजाय,
किया अक्षमाला का साथी उसे उमा ने वन में आय।।
१२
मूल्यवान शय्या के ऊपर निज केशों से कोमल फूल,
गिर कर, जिसको चुभते से थे; होते थे पीड़ा का मूल।
वही बिछौने बिन वेदी पर तकिया अपनी बाँह बनाय,
सोई और वहीं बैठी भी तपोधर्म्म में ध्यान लगाय॥
१३
व्रत-पालन में तत्पर उसने "फिर ले लूँगी"--यह मन ठान,
ये दोनों ही इन दोनों को दिये धरोहर-वस्तु-समान।
ललित लताओं को पहले के अपने सब शृड़्गारिक भाव,
हरिण-नारियों का नयनों की चञ्चलता का सहज स्वभाव
१४
आश्रम के अनेक पौधों को, आशलता तज, क्लेश उठाय,
बड़ा किया उसने घटरूपी-स्तन का पय स्वयमेव पिलाय।
प्रथम जन्म पाने के कारण जिनका सुत-वात्सल्य विशेष,
पुत्र-शिरोमणि कार्तिकेय भी नहीं कर सकेंगे नि:शेष॥
१५
नित्य अञ्जली भर भर पाकर वन के विमल अन्न का दान,
हरिण-यूथ, हिल, हुए यहाँ तक गिरिजा में विश्वास-निधान
कि निज सखी-जन के सम्मुख ही उसने कोतूहल में आय,
उनके अति चञ्चल नयनों से नापे अपने नयन मिलाय।।
१६
शुचि-स्नान कर, डाल गले में वर वल्कल शोभाशाली,
हव्य बुताशन कर पहुँचा कर, नित्य पाठ करनेवाली।