पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/४९

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बिना याचना के जो कोई स्वयं सलिल ले आता था:
सरस शशी का किरण-जाल जो यथा-समय मिल जात उसे छोड़ कर शैलसुता ने और न कुछ मुख में डाला;
वृक्षों के समान आकाशी-वृत्ति-व्रत उसने पाला ॥
२३
रवि-रूपी आकाश-निवासी,महिवासी इन्धनवाला,
इन दोनों अनलों से उसने अपना तन तपाय डाला ।
वर्षा रितु में पहला पानी बरसा जब उसके ऊपर,
तब उसने साथ ही मही के छोड़ी उधरण भाफ खर-तर
२४
प्रथम वृष्टि के बूंद उमा की बरोनियों पर कुछ ठहरे,
फिर, पीड़ित कर अधर,कुचों पर चूर चूर होकर बिर
तदनन्तर, सुन्दर त्रिवली का क्रम क्रम से उल्लङ्घन कर,
बड़ी देर में पहुंच सके वे उसकी रुचिर-नाभि-भीतर।।
२५
वायु-वेग के साथ,निरन्तर,हुई वृष्टि जब महा अपार,
तब भी शैल-शिला-ऊपर वह पड़ी रही छोड़े घर-द्वार ।
ऐसे तप की सत्य साक्षिणी नोल-निशाओं ने,बहु बार ,
उसे,उस समय,मानों देखा चपला-रूपी चक्षु उधार
२६
साथ छूट जाने के कारण करुणामय-विलापकारी,
चक्रवाक जोड़े को करती हुई कृपा का अधिकारी ।
जिन में पवन-सङ्ग पड़ता था दुख-दायक पाला भारी,
ऐसी पूस-निशायें उसने पानी में काटी सारी॥
२७
तुहिन-वृष्टि होने से सरसिज जिस सर के थे गये सुखाय,
उसमें,उस गिरिराज-सुता ने रात रात भर बड़े विकार