पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/५१

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३३
क्या कुश, समिधादिक सब तुझको यहाँ सुलभ देिखचाता है
स्मान-योग्य क्या निर्म्मल जल भी इस वन में मिल जाता
बल-बाहर तो नहीं तपस्या करती है हे सुकुमारी?
क्योंकि, देह यह सब धर्म्मों के साधन में सहायकारी
३४
लाक्षा-रस यद्यपि बहु दिन से पाया नहीं तदपि लाले,
इन तेरे अधरों की समता भली भाँति करनेवाले।
तुझसे सींची गई लताओं के नव-पल्लव अरुणारे,
क्या अपनी अपनी डालों में क्षेम कुशल-युत हैं लारे?
३५
हे नवीन-नीरज-दल-लोचनि! निज चञ्चल लोचन दिखला
तव विलोचनों की समता सी करनेवाले मृग-समुदाय।
प्रेम-सहित, कर कमलों से कुश छीन छीन कर बारम्बार,
उपजाते तो नहीं चित्त में तेरे कोई कोप-विकार?
३६
"रूपवान जन पाप-वृत्ति के नहीं पास भी जाता है--"
इस प्रकार का कथन सर्वथा सत्य मुझे दिखलाता है।
तेरा शील विलोकन करके हे उदार-दर्शनवाली!
मिलता है उपदेश उन्हें भी जो अति अद्भुत तपशाली
३७
प्रात सप्त ऋषियों के फेंके फूलों को हँसनेवाले,
अमर-लोक से आये सुरसरि-सलिलों से हे गिरिबाले!
हिम-मण्डित यह शैल हिमालय पावन हुआ नहीं उतना,
तेरे महा अमल चरितों से अपने वंश-सहित जितना॥
३८
हे अति विशद मनोरथवाली! इस त्रिवर्ग में सब का सार
एक धर्म्मही है--यह मेरे मन में आता है सुविचार।