पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/५२

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( ४३ )

क्योंकि, काम के और अर्थ के चिन्तन से वासना हटाय,
केवल धर्म्म-मार्ग का सेवन करती है तू चित्र लगाय।।
३९
तूने आज किया है मेरा हे गिरिजे! विशेष सम्मान;
अतः मुझे परकीय तुल्य तू अब मत अपने मन में मान।
विद्वानों का कथन है कि जो हो जावें बस बातें सात,
सुजनों की मित्रता, विश्व में, ता, उतने ही से विख्यात।।
४०
मैं द्विज हूँ, इससे मुझ में है स्वाभाविक वचलनाई;
अतः पूछना चाहता हूँ मैं एक बात जो मन आई।
क्षमावती! हे लपस्विनी! यह सम घृष्टता क्षमा कीजै;
बतलाने के योग्य होय जो मुस्कको बतला दीजै।।
४१
निज उत्पत्ति हिरण्यगर्भ के कुल में तूने पाई है;
त्रिभुवन की सुन्दरता मानों तन में आय समाई है।
यह अतुलित ऐश्वर्य्य और यह मनोमोहिनी तरुणाई;
तेरा तप होगा इससे अधिक और क्या फलदायी?
४२
किसी महा दुःसह अनिष्ट से पीड़ित यदि हो जाती हैं,
मानवती महिलायें ऐसे तप में चित्त लगाती हैं।
किन्तु विचार-मार्ग में अपना मन जब मैं दौड़ाता हूँ,
हे कृशोदरी! तुझ में कोई वैसी बात न पाता हूँ।।
४३
हे सुन्दरि! यह मधुर मूर्ति तव अपमानादिक योग्य नहीं;
पिता-भवन में मान-हानि भी हो सकती है भला कहीं?
यह भी सम्भव नहीं कि तुझ को कोई कमी सतावेगा;
भीम-भुजङ्क-शीश की मणि पर निज कर कौन चलावेगा?