पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/५३

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बल्कल सदा वुढ़ापे ही में शोभा को पाने वाला,
आभूषण तज नूतन वय में क्यों तूने तन पर डाला?
शशी और तारों से शोभित सायङ्काल निशा नारी,
रवि-सारथी पास जाने की करता है क्या तैयारी?
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देव-लोक चहती है तो यह निष्फल श्रम-लीला सारी;
तेरा पिता हिमालय ही है देव-भूमि का अधिकारी।
पति पाने की यदि इच्छा है, तो समाप्त कर तप भारी;
ग्राहका नहीं, रत्न ही ढूँढा जाता है हे सुकुमारी!
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उष्ण साँस लेकर पिछला ही कारण तू बतलाती है,
किन्तु बुद्धि मम संशय में फंस फिर भी चक्कर खाती है
तव प्रार्थना-योग्य इस विस्तृत विश्व में न है कोई वर;
करने पर प्रार्थना भला फिर नहीं मिलेगा वह क्यों कर
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बिना कमल-कुण्डल कपोल तब सूने से दिखलाते हैं;
उन पर जो ये लम्बे लम्बे जटा जाल लहराते हैं।
इनको तुच्छ समझता है जो युवा स्नेह-भाजन तेरा,
वह अवश्य ही वज्र-हृदय है--यही अटल निश्चय मेरा॥
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मुनियों के कठोर नियमों से अतिशय कृश होनेवाली,
देह दिवाकर की किरणों से किये हुए काली काली।
दिन में उदित चन्द्र-लेखा सम गिरिजे! तुझे विलोकन कर,
किस सजीव का हृदय दुःख से हाय! नहीं होगा जर्जर
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कुटिल और काली बरोनियों से जो शोभा पाते हैं;
अवलोकन के समय चपलता करते जो सकुचाते हैं।