पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/५५

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तब से यह निज पिता-सदन में व्यथा काल की सहती थी;
अलकों को ललाट-चन्दन से मले हुए ही रहती थी।
विमल बर्फ़ की भी अति शीतल सुखद शिलाओं के ऊपर,
सच कहती हूँ, इस बाला को चैन न पड़ती थी क्षण भर
५६
किन्नर-कन्याओं को लेकर शम्भु-चरित जब गाती थी,
तब यह आँखों से आँसू की अविरल धार बहाती थी।
अनसिल स्वर गद्गद वाणी से दुःख विशेष बढ़ाती थी;
गान-समय की सखियों को भी अपने साथ लाती थी।।
५७
तीन पहर निशि गत होने पर यदि कुछ निद्रा आती थी;
तो, फिर, इसकी आँख तनिक में अकस्मात खुल जाती थी
मनही मन श्रीकण्ठ-कण्ठ में बाँह डाल सुख पाती थी;
"हे घर! कहाँ चले?"-यह कह कर, चौंक चौंक अकुलाती थी
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"बड़े बड़े विद्वज्जन तुमको कहते हैं अन्तर्यामी,
फिर, क्यों नहीं जान लेते हो मेरा मनोऽभीष्ट स्वामी"?
अपने ही कर से शङ्कर का चित्र बनाय हृदयहारी,
उनका उपालम्भ करती थी, इसी भाँति यह सुकुमारी॥
५९
उनके मिलने की जब इसको मिली न और युक्ति कोई,
ढूँढ़ ढूँढ़ कर हार गई यह, बहुत अवधि इसने खाई।
पाय पिता की अनुमति तब, तज माता तथा सगा भाई,
हम सबको ले, यह तप करने यहाँ तपोवन में आई।।
६०
सप के साक्षी तरुवर इसने जितने यहां लगाये हैं,
उन सब में, इस समय, देखिए, फूल और फल छाये हैं।