पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/५६

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किन्तु चन्द्रशेखर-सम्बन्धी इसकी अभिलाषा सुखकर,
अंकुर-युत भी नहीं हुई है, सच कहती हूँ हे द्विजवर!
६१
तप से अतिशय कृश यह इसकी देह न देखी जाती है;
सखियों के नयनों से जल की धारा बह बह आती है।
जुती हुई जलती धरती पर सुरपति सम, वे दुर्लभ हर,
नहीं जानती कब होवेंगे दयावान इसके ऊपर।।
६३
शैल-किशोरी का मन पाकर कुछ न सखी ने किया दुराव,
उस साधू को साफ़ साफ़ यों सुना दिया सारा सद्भाव।
सुन उसने पूछा गिरिजा से, बिना किये ही हर्ष-प्रकाश,
क्या यह सच कहती है, अथवा करती है मुझले परिहास?
६४
इस प्रकार का प्रश्न श्रवण कर वह तापसी शैल-बाला,
पाणि-सरोरुह की मुट्ठी में धारण किये स्फटिक-माला!
"क्या उत्तर दूँ?"-यही देर तक रही सोचती मनही मन;
किसी भाँति सङ्कोच छोड़ कर बोली, फिर, ये अल्प वचन
६४
हे वेदश शिरोमणि! इसने सस्य बात बतलाई है;
दुर्लभ पद पाने की इच्छा मेरे मन में आई है।
इसी लिए इस तप-साधन में मैंने चित्त लगाया है;
मनोरथों की सीमा का भी अन्त किसी ने पाया है?
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बोला चतुर ब्रह्मचारी तब, हाँ मुझको हैं विदित महेश;
फिर भी तू उनके पाने की इच्छा रखती है सविशेष!
किन्तु, कदापि नहीं दे सकता तुझको निज अनुमोदन-दान।।
क्योंकि, जानता हूँ मैं उनको महा-अमङ्गल-मूल-निधान।।