पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/५८

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एक चन्द्रमा की चटकीली कला मनोहरता की खान;
विश्व-विलोचन-मोद-दायिनी दूजी तू सौन्दर्य निधान।।
७२
तन कुरूप, हग तीन विलक्षण, नथा जन्म का भी न ठिकान;
देह-दिगम्बरता से धन का होना है पूरा अनुमान।
मृगनयनी! वर में जितने गुण देखे जाते हैं सविशेष,
उनमें से त्रिनयन में सचमुच नहीं एक का भी लव-लेश।।
७३
यह अनुचित अभिलाषा मन से बाहर कर हे सुकुपारी!
सुभग-मूर्ति सुन्दरी कहाँ तू? कहाँ अमड़्गल त्रिपुरारी?
यज्ञ-यूप* की वैदिक विधि से जा पूजा की जाती है,
वध-खूनक मसान की सूली उसे क्या कमी पाती है?
७४
उस द्विज ने इस भाँति दिया जब उलटा अभिप्राय सारा,
कोप प्रकाशित किया उमा ने कम्पिन अधरी के द्वारा।।
खौंच भाल के ऊपर भौहे अति विशाल काली काली,
उसने टेढ़ी की निज आंखें कोनों में लाली लाली।।
७५
कहने लगी कि तू शङ्कर को नहीं भली विधि जाने है,
इसीलिए ही उनका मुझसे तू इस भाँति बखाने है।
सत् पुरुषों के चरित अलौकिक मुर्ख बुरा बतलाते हैं,
क्योंकि चरित्र-हेतु ही उनकी नहीं समझ में आते हैं।।
७६
विपति-नाश अथवा सम्पति का सुख जो सदा मनाते हैं,
वेही मङ्गल-मयो वस्तु के सेवक देखे जाते हैं।


  • यूप - पशु बांधने का खम्भा।