पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/६

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पहली आवृत्ति की भूमिका।

कालिदास के काव्यों में कुमारसम्भव का भी बड़ा आदर है। इसमें सब १७ सर्ग हैं, परन्तु पहले सात ही सर्गों के पठन-पाठन का अधिक प्रचार है। अष्टम सर्ग में कवि ने शङ्कर और पार्वती के शृङ्गारिक वर्णन की पराकाष्ठा कर दी है, यहाँ तक कि किसी किसी की समझ में अनेक स्थल अश्लीलता-दूषित हो गये हैं। शायद इसी कारण से सप्तम सर्ग तक ही इस काव्य के अनुशीलन की परीपाटी पड़ गई हो। कोई कोई यह भी कहते हैं कि आठही सर्ग कालिदास के बनाये हुए हैं, शेष नौ सर्ग किसी ने उसके नाम से बनाकर पीछे से जोड़ दिये हैं। इस सम्भावना का कारण वे यह बतलाते हैं कि यदि सत्रह सर्ग पर्य्यन्त कालिदासही की रचना होती तो इस काव्य का "तारकवध" अथवा इसी अर्थ का द्योतक और कोई ऐसाही नाम रक्खा जाता; "कुमारसम्भव" न रक्खा जाता; क्योंकि कुमार के द्वारा तारक का वध वर्णन करके सत्रहवें सर्ग की समाप्ति हुई है।

कुमारसम्भव की कथा कालिदास ने शिवपुराण से ली है। ऐसा करने में कवि ने कहीं कहीं शिवपुराण के श्लोकों के पूरे चरण के चरण वैसेही रख दिये हैं, पदयोजनाओं और भावों के ले लेने के प्रमाण तो एक सिरे से दूसरे सिरे तक सभी कहीं विद्यमान हैं। दो चार उदाहरण लीजिए:—


शिवपुराण, तेरवाँ अध्याय।

दिशः प्रसेदुः पवनः सुखं ववौ
शंखं निदध्मुर्गगनेऽचरास्तथा।
पपात मौलौ कुसुमाञ्जलिस्तधा
बभूव तज्जन्मदिनं सुखप्रदम्॥

कुमारसम्भव, प्रथम सर्ग।

प्रसन्नदिक् पांशुविविक्तवातं
शङ्खस्वनानन्तरपुष्पवृष्टिः।
शरीरिणां स्थावरजङ्गमानां
सुखाय तज्जन्मदिनं बभूव॥