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(२)

गिरिशमुपचचार प्रत्यह सा सुकेशी

 

चौदहवाँ अध्याय।

महासुरम्तारकाख्यस्तवत्तः प्राप्तपराक्रमः।
सर्वलोकविनाशाय केतुराजिरिवोत्थितः॥
एवमाराधितश्चापि स क्लिश्नाति जगत्रयम्।
शाम्येत्प्रत्यपकारेण नोपकारेण दुर्जनः॥

पन्द्रहवाँ अध्याय।

असम्मतः कस्तवेन्द्र मुक्तिमार्गमपेक्षते।
तं सुन्दरीकटाक्षैस्तु बध्नाम्याज्ञापय प्रभो॥

 

सोलहवाँ अध्याय।

अपि क्रियार्थे सुलभं पुष्पवारिसमित्कुशम्।
अपि देवि तपोमूर्ध्नि स्वशक्त्या परिवर्तसे॥

गिरिशमुपचचार प्रत्यह सा सुकेशी।
नियमितपरिखेदा तच्छिरश्चन्द्रपादेः॥

द्वितीय सर्ग।

भवल्लब्धवरोदीर्णस्तारकाख्यो महासुरः।
उपप्लवाय लोकानां धूमकेतुरिवोत्थितः॥
इत्थमाराध्यमानोपि क्लिश्नाति भुवनत्रयम्।
शाम्येत्प्रत्यपकारेण नोपकारेण दुर्जनः॥

तृतीय सर्ग।

असम्मतः कस्तव मुक्तिमार्गे
पुनर्भवक्लेशभवात्यपन्नः।
बद्धश्चिरे तिष्ठतु सुन्दरीणा-
मारेचितभ्रूच्तुरैः कटाक्षैः॥

पञ्चम सर्ग।

अपि क्रियार्थे सुलभं समित्कुशम्।
जलान्यपि स्नानविधिक्षमाणि ते।
अपि स्वशक्त्या तपसि प्रवर्तसे
शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्॥


कालिदास के विषय में हम एक पृथक् निबन्ध लिखना चाहते हैं; उसमें कालिदास की इस कृति का विशेष रूप से विचार करने की इच्छा है। अतः, यहाँ पर, हम और कुछ नहीं कहते।

इस काव्य के प्रथम पाँचही सर्ग सर्वोत्तम हैं। इस लिए हमने उन्हीं का अनुवाद किया है। बहुत कम अवकाश मिलने के कारण तृतीय और पञ्चम सर्ग का ही पूरा करके प्रथम, तृतीय और चतुर्थ सर्ग के अनुवाद में हमने मूल का आशय मात्र लिया है।

यह अनुवाद कलकत्ते के "भारतमित्र" में क्रमशः छपा था; अब इसे काशी नागरी प्रचारिणी सभा पुस्तकाकार प्रकाशित करती है।

झाँसी,
महावीर प्रसाद द्विवेदी
१६ नवम्बर, १९०२