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गिरिशमुपचचार प्रत्यह सा सुकेशी चौदहवाँ अध्याय। महासुरम्तारकाख्यस्तवत्तः प्राप्तपराक्रमः। पन्द्रहवाँ अध्याय। असम्मतः कस्तवेन्द्र मुक्तिमार्गमपेक्षते।
सोलहवाँ अध्याय। अपि क्रियार्थे सुलभं पुष्पवारिसमित्कुशम्।
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गिरिशमुपचचार प्रत्यह सा सुकेशी। द्वितीय सर्ग। भवल्लब्धवरोदीर्णस्तारकाख्यो महासुरः। तृतीय सर्ग। असम्मतः कस्तव मुक्तिमार्गे पञ्चम सर्ग। अपि क्रियार्थे सुलभं समित्कुशम्।
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कालिदास के विषय में हम एक पृथक् निबन्ध लिखना चाहते हैं; उसमें कालिदास की इस कृति का विशेष रूप से विचार करने की इच्छा है। अतः, यहाँ पर, हम और कुछ नहीं कहते।
इस काव्य के प्रथम पाँचही सर्ग सर्वोत्तम हैं। इस लिए हमने उन्हीं का अनुवाद किया है। बहुत कम अवकाश मिलने के कारण तृतीय और पञ्चम सर्ग का ही पूरा करके प्रथम, तृतीय और चतुर्थ सर्ग के अनुवाद में हमने मूल का आशय मात्र लिया है।
यह अनुवाद कलकत्ते के "भारतमित्र" में क्रमशः छपा था; अब इसे काशी नागरी प्रचारिणी सभा पुस्तकाकार प्रकाशित करती है।
झाँसी, | महावीर प्रसाद द्विवेदी |
१६ नवम्बर, १९०२ |