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तामिलवेद की प्रस्तावना में लिखते हैं कि—"कुछ लोगों का कथन है कि कुरल के कर्ता अछूत थे, पर ग्रन्थ के किसी भी अंश से या उसके उदाहरण देने वाले अन्य ग्रन्थ-लेखकों के लेखों से इसका कुछ भी आभास नहीं मिलता।" और हमारी रायमें बुद्धि कहती है कि अकेली एक तामिल भाषा का ज्ञाता अछूत कुरल को नहीं बना सकता, कारण कुरल में तामिल प्रांतीय विचारों का ही समावेश नहीं है किन्तु सारे भारतीय विचारों का दोहन है। इसका अर्थशास्त्र-सम्बन्धी ज्ञान कौटिलीय अर्थशास्त्र की कोटि का है। इस ग्रन्थ का रचयिता निःसन्देह बहुश्रुत और बहुभाषा-विज्ञ होना चाहिए, जैसे एलाचार्य थे।

तामिल भाषा के कुछ समर्थ जैनेतर लेखकों की यह भी राय है कि 'कुरल के कर्ता का वास्तविक परिचय अब तक हम लोगों को अज्ञात है, उसके कर्ता तिरुवल्लवर का यह कल्पित नाम भी संदिग्ध है। उनकी जीवन-घटना ऐतिहासिक तथा वैज्ञानिक तथ्यों से अपरिपूर्ण है।'

अन्तःसाक्षी—

अतः हम इन कल्पित दन्तकथाओं का आधार छोड़कर ग्रन्थ की अन्तःसाक्षी और प्राप्त ऐतिहासिक उदाहरणों को लेकर विचार करेंगे, जिससे यथार्थ सत्य की खोज हो सके। जो भी निष्पक्ष विद्वान् इस ग्रन्थ का सूक्ष्मता के साथ परीक्षण करेगा उसे यह बात पूर्णतः स्पष्ट हुए बिना नहीं रहेगी कि यह ग्रन्थ शुद्ध अहिंसाधर्म से परिपूर्ण है और इसलिए यह जैन मस्तिष्क की उपज होना चाहिए। श्रीयुत् सुब्रह्मण अय्यर अपने अंग्रेजी अनुवाद की प्रस्तावना में लिखते हैं कि 'कुरलकाव्य का मंगलाचरण वाला प्रथम अध्याय जैनधर्म से अधिक मिलता है।'

फूल भले ही यह न कहे कि मैं अमुक वृक्ष का हूँ, फिर भी उसकी सुगन्धि उसके उत्पादक वृक्ष को कहे बिना नहीं रहती, ठीक इसी प्रकार किसी भी ग्रंथ के कर्ता का धर्म हमें भले ही ज्ञात न हो पर उसके भीतरी विचार उसे धर्म विशेष का घोषित किये बिना न रहेंगे। लेकिन इन विचारों का पारखी होना चाहिए। यदि जैनेतर