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विद्वान् जैनवाङ्मय के ज्ञाता होते तो उन्हें कुरल को जैनाचार्यकृत मानने में कभी देरी न लगती। ग्रन्थकर्ता ने जैन भाव इस काव्य में कलापूर्ण ढंग से लिखे हैं, उनको ये लोग जैनधर्म से ठीक परिचित न होने के कारण नहीं समझ सके हैं। कुरल की सारी रचना जैन मान्यताओं से परिपूर्ण है। इतना ही नहीं, किन्तु उसका निर्माण भी जैन पद्धति को लिये हुए है। इसका कुछ दिग्दर्शन हम यहाँ कराते हैं।

इसमें किसी वैदिक देवता की स्तुति न देकर जैनधर्म के अनुसार मंगलकामना की गई है। जैनियों में मंगल कामना करने की एक प्राचीन पद्धति है, जिसका मूल यह सूत्र है कि "चत्तारि मंगल, अरहता मंगल, सिद्धा मंगल, साहू मंगल, केवलिपरणत्तो धम्मो मंगल।" अर्थात् चार हमारे लिये मंगलमय है—अरहत, सिद्ध, साधु और सर्वज्ञ प्रणीत धर्म। देखिए 'ईश्वरस्तुति' नामक प्रथम अध्याय में प्रथम पद्य से लेकर सातवें तक अरहन्त स्तुति है और आठवें में सिद्धस्तुति है। नवमें और दशवें में साधु के विशेष भेद-आचार्य और उपाध्याय की स्तुति है।

सम्राट् मौर्य चन्द्रगुप्त के समय उत्तर भारत में १२ वर्ष का एक बड़ा दुर्भिक्ष पड़ा था, जिसके कारण साधुचर्या कठिन हो गई थी। अतः श्रुतकेवली भद्रबाहु के नेतृत्व में आठ हजार मुनियों का संघ उत्तर भारत से दक्षिण भारत चला गया था। मेघवर्षा के बिना साधुचर्या नहीं रह सकती, यह भाव उस समय सारी जनता में छाया था, इसलिए कुरल के कर्ता ने उसी भाव से प्रभावित होकर 'मुनि-स्तुति' नामक तृतीय अध्याय के पहिले 'मेघ महिमा' नामक द्वितीय अध्याय को लिखा है। साधुस्तुति के पश्चात् चौथे अध्याय में मंगलमय धर्म की स्तुति की गई।

ईश्वरस्तुति नामक प्रथम अध्याय के प्रथम पद्य में 'आदिपकवन' शब्द आया है, जिसका अर्थ होता है 'आदि भगवान' जो कि इस युग के प्रथम अरहन्त भगवान आदीश्वर ऋषभदेव का नाम है। दूसरे पद्य में उनकी सर्वज्ञता का वर्णन कर पूजा के लिए उपदेश दिया गया है। तीसरे पद्यमें 'मलर्मिशै' अर्थात् कमलगामी कहकर उनकी अरहत अवस्था के एक अतिशय का वर्णन है। चौथे पद्य में उनकी वीत-