'मेरा' मैं? के भाव तो, स्वार्थ गर्व के थोक।
जाता त्यागी है वहाँ, स्वर्गोपरि जो लोक॥
सागारधर्मामृत के एक पद्य में पं॰ आशाधर जी ने प्राचीन जैन परम्परा से प्राप्त ऐसे चौदह गुणों का उल्लेख किया है जो, गृहस्थ धर्म में प्रवेश करने वाले नर-नारियों में परिलक्षित होने चाहिए। वह पद्य इस प्रकार हैं—
न्यायोपात्तधनो यजन् गुणगुरून् सद्गीस्त्रिवर्ग भजन्,
अन्योऽन्यानुगुण तदर्हगृहिणी स्थानालयो ह्रीमय।
युक्ताहारविहार आर्यसमिति प्राज्ञ कृतज्ञो वशी,
शृण्वन् धर्मविधिं दयालुरघभी सागारधर्म चरेत्॥
हम देखते हैं कि इन चौदह गुणों की व्याख्या ही सारा कुरलकाव्य है।
ऐताहासिक बाहरी साक्षी—
१. शिलप्पदिकरम्—यह एक तामिल भाषा का अति सुन्दर प्राचीन जैनकाव्य है। इसकी रचना ईसा की द्वितीय शताब्दी में हुई थी। यह काव्य, कला की दृष्टि से तो महत्वपूर्ण है ही साथ ही तामिल जाति की समृद्धि, सामाजिक व्यवस्थाओं आदि के परिज्ञान के लिए भी बड़ा उपयोगी है, और प्रचलित भी पर्याप्त है। इसके रचयिता चेरवंश के लघु युवराज राजर्षि कहलाने लगे थे। इन्होंने अपने शिलप्पदिकरम् में कुरलके अनेक पद्य उद्धरण में देकर उसे आदरणीय जैनग्रन्थ माना है।
२. नीलकेशी—यह तामिल भाषा में जैनदर्शन का प्रसिद्ध प्राचीन शास्त्र है। इसके जैन, टीकाकार अपने पक्ष के समर्थन में अनेक उद्धरण बड़े आदर के साथ देते हैं, जैसे कि 'इम्मे ट्टू' अर्थात् हमारे पवित्र धर्मग्रन्थ कुरल में कहा है।
३. प्रबोधचन्द्रोदय—यह तामिल भाषा में एक नाटक है, जोकि संस्कृत प्रबोधचन्द्रोद्य के आधार पर शंकराचार्य के एक शिष्य द्वारा लिखा गया है। इसमें प्रत्येक धर्म के प्रतिनिधि अपने अपने धर्म ग्रन्थ का पाठ करते हुए रंगमंच पर लाये गये हैं। जब एक निर्ग्रन्थ जैन मुनि स्टेज पर आते है तब वह कुरल के उस विशिष्ट