पृष्ठ:कुरल-काव्य.pdf/१३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[१११
 

 

परिच्छेद १
ईश्वर–स्तुति

१—"अ" जिस प्रकार शब्द-लोक का आदि वर्ण है, ठीक उसी प्रकार आदिभगवान पुराण-पुरुषों में आदिपुरुष है।

२—यदि तुम सर्वज्ञ परमेश्वर के श्रीचरणों की पूजा नहीं करते हो तो तुम्हारी सारी विद्वत्ता किस काम की?

३—जो मनुष्य उस कमलगामी परमेश्वर के पवित्र चरणों की शरण लेता है, वह जगत मे दीर्घजीवी होकर सुख-समृद्धि के साथ रहेगा।

४—धन्य है वह मनुष्य, जो आदिपुरुष के पादारविन्द मे रत रहता है। जो न किसी से राग करता है और न घृणा, उसे कभी कोई दुख नही होता।

५—देखो, जो मनुष्य प्रभु के गुणों का उत्माहपूर्वक गान करते हैं, उन्हें अपने भले-बुरे कर्मों का दुखद फल नही भोगना पडता।

६—जो लोग उस परम जितेन्द्रिय पुरुष के दिखाये धर्ममार्ग का अनुसरण करते है, वे चिरजीवी अर्थात् अजर अमर बनेगे।

७—केवल वे ही लोग दुखों से बच सकते हैं, जो उस अद्वितीय पुरुष की शरण में आते है।

८—धन वैभव और इन्द्रिय-सुख के तूफानी समुद्र को वे ही पार कर सकते हैं, जो उस धर्मसिन्धु मुनीश्वर के चरणों मे लीन रहते है।

९—जो मनुष्य अष्ट गुणों से मण्डित परब्रह्म के आगे शिर नहीं झुकाता, वह उस इन्द्रिय के समान है, जिसमे अपने गुणों को प्रहण करने की शक्ति नही है।

१०—जन्म-मरण के समुद्र को वे ही पार कर सकते है, जो प्रभु के चरणों की शरण मे आ जाते है। दूसरे लोग उसे तर ही नहीं सकते।