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पद्य को पढ़ते हुए प्रविष्ट होते है जिनमें अहिंसा सिद्धान्त का गुणगान इस रूप में किया गया है—

सुनते हैं बलिदान से, मिलतीं कई विभूति।
वे भव्यों की दृष्टि में, तुच्छघृणा की मूर्ति॥

यहाँ यह सूचित करना अनुचित नहीं है कि नाटककार की दृष्टि में कुरल विशेषतया जैनग्रन्थ था, अन्यथा वह इस पद्य को जैन सन्यासी के मुख से नहीं कहलाता।

इस अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग साक्षी से इस विषय में सन्देह के लिए प्राय कोई स्थान नहीं रहता कि यह ग्रन्थ एक जैनकृति है। निस्सन्देह नीति के इस ग्रन्थ की रचना महान् जैन विद्वान् के द्वारा विक्रम की प्रथम शताब्द के लगभग इस ध्येय को लेकर हुई है कि अहिंसा सिद्धान्त का उसके सम्पूर्ण विविधरूपों में प्रतिपादन किया जावे।

कुरल पर प्रभाव

जिस ग्रन्थका कुरल पर प्रभाव पड़ा है वह है 'नलदियार' दोनोंका ही नामकरण छन्द विशेष के कारण पड़ा है। कुरल के समान नालदी भी तामिल भाषा का एक विशिष्ट छन्द है। 'कुरल' और 'नालदी' ये ग्रन्थ आपस में टीका का काम करते हैं। दोनों ही नीति विषयक काव्य हैं तथा उनकी विषय-विवेचन-शैली भी ऐसी है कि जिससे धर्म, अर्थ, काम ये तीनों पुरुषार्थ मूल अहिंसा धर्म से सम्बद्ध रहे। इसीलिए दोनों ग्रन्थों में विपरीत विचारों की आलोचना के साथ ही अहिंसा के विविध अंगों का वर्णन किया गया है। तामिल भाषा के महा विद्वानों का कथन है कि 'कुरल' और 'नालिदी' नीति के १८ काव्यों में एक विशिष्ट महत्व का स्थान रखते हैं। तामिल सरस्वती का समस्त शृङ्गार इन दो काव्यों में ही निहित है।

नलदियार कुरल से पूर्ववर्ती है। उसकी रचना इससे पूर्व ३०० वर्ष पहिले आठ हजार जैन मुनियों ने मिलकर की थी। खेद है कि ८ हजार पद्यों में से अब केवल चार सौ पद्य ही रह गये हैं। अन्य पद्य कैसे नष्ट हो गये, इसकी एक विशिष्ट ऐतिहासिक कथा वृद्ध-परम्परा से चली आती है, कि—