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परिच्छेद ५
गृहस्थाश्रम

आश्रम यधपि चार हैं, उनमें धन्य गृहस्थ।
मुख्याश्रय सबका वही, इससे श्रेष्ठ गृहस्थ॥१॥
मृतकों का सच्चा सखा, दीनों का आधार।
है अनाथ का नाथ वह, गृही दया साकार॥२॥
देव अतिथि पूजन सदा, स्वोन्नति निज जन भर्म[१]
रक्षण पूर्वज कीर्ति का, पाँच गृही के कर्म॥३॥
दान बिना भोजन तथा, रुचै न निन्दा अंश।
वीजशून्य होता नहीं, उसका कभी सुवश॥४॥
धर्मराज्य के साथ में, जिसमें प्रेम-प्रवाह।
तोष-सुधा उस गैह में, पूर्ण फलें सब चाह॥५॥
पालन यदि करता रहे, मनुज गृही के कर्म।
आवश्यक क्यों हों उसे, अन्याश्रम के धर्म॥६॥
जो गृहस्थ करता सदा, धर्म-सुसंगत कार्य।
वह मुमुक्षुगण में कहा, परमोत्तम है आर्य॥७॥
साधक जो पर कार्य का, तथा उदारचरित्र।
है गृहस्थ वह सत्य ही, ऋषि से अधिक पवित्र॥८॥
धर्म तथा आचार का, है सम्बन्ध विशेष।
गृहजीवन के साथ में, भूषण कीर्तिविशेष॥९॥
जिस विधि करना चाहिए, करे उभी विधि कार्य।
है गृहस्थ वह देवता, कहते ऐसा आर्य॥१०॥


  1. भरण-पोषण।